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आचारांगभाष्यम् केवलमात्मनः सत्तायामचेतनस्य प्रत्यक्षदृष्टा हेतु- यदि एकमात्र आत्मा का अस्तित्व स्वीकार किया जाए तो सिद्धा वा सत्ता कथं निवारयितुं शक्या? नैते पौद्ग- अचेतन का अस्तित्व, जो प्रत्यक्ष-दृष्ट और हेतु-सिद्ध है, का लिकाः पदार्थाः मनःप्रत्ययसंभवाः । यदि सर्वेपि पौदग- निवारण कैसे किया जा सकता है ? ये पौद्गलिक पदार्थ मानसिकलिकाः पदार्थाः मानसप्रत्ययजन्मानो भवेयुः तदा प्रत्यय से उत्पन्न नहीं हैं। यदि सभी पौद्गलिक पदार्थ मानसिकआत्माऽपि न मानसप्रत्ययसंभव इति कः कथं वक्तं प्रत्यय से उत्पन्न हों तो आत्मा भी मानसिक-प्रत्यय से उत्पन्न नहीं शक्नुयात् ? विषयस्य अनस्तित्वे विषयिणो अस्तित्वं है, यह कौन-कैसे कह सकता है ? विषय के अनस्तित्व में विषयी कथं समर्थनीयम् ? 'एते पदार्थाः' इति ज्ञानं नास्ति सत्यं के अस्तित्व का समर्थन कैसे किया जा सकता है ? 'ये पदार्थ हैं'.--- तदा अहमस्मीति ज्ञानमस्ति सत्यं, अत्र कि साक्ष्यम् ? यह ज्ञान यदि यथार्थ नहीं है तो 'मैं हूं' इस ज्ञान की सत्यता का अचेतनतत्त्वं चेतनतत्त्वस्य सष्टिरिति स्वीकारे चेतनतस्व ___ साक्ष्य क्या है ? अचेतन तत्त्व चेतन तत्त्व की सृष्टि है, इस बात को अचेतनतत्त्वस्य सृष्टिरिति स्वीकार निरसित कोऽस्ति स्वीकार करें तो चेतन तत्त्व अचेतन तत्त्व की सृष्टि है, इस स्वीकृति तर्कः ? तस्मात् चेतनाचेतनयोः द्वयोरप्यस्ति स्वतन्त्रं को निरस्त करने के लिए कौन सा तर्क है ? इसलिए चेतन और अस्तित्वम् । नेतज्जगत् केवलं चेतनतत्वमयं अचेतन- अचेतन-दोनों का अस्तित्व स्वतंत्र है। यह जगत् न केवल चेतन तत्त्वमयं वा। न चेतनाद् अचेतनोत्पत्तिः, न च तत्वमय है और न केवल अचेतन तत्वमय । न चेतन से अचेतन अचेतनात चेतनोत्पत्तिश्च । यदुक्तं स्थानांगे...'ण एवं उत्पन्न हुआ है और न अचेतन से चेतन । जैसा कि स्थानांग में भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं जीवा अजीवा कहा गया है-न ऐसा कभी हुआ है, न ऐसा हो रहा है और न भविस्संति, अजीवा वा जीवा भविस्संति ---एवंप्पेगा ऐसा कभी होगा कि जीव अजीव हो जाए और अजीव जीव हो लोगट्टिती पण्णत्ता।"
जाए। यह एक लोकस्थिति है। अस्ति पुद्गलस्य स्वतंत्रमस्तित्वम् । अस्ति च तस्य पुद्गल का अस्तित्व स्वतंत्र है। आत्मा के साथ उसका योग आत्मना सह योगः, अत एवात्मा संगवान् भवति । है, इसीलिए आत्मा संगयुक्त-लेपयुक्त होती है। यदि पुद्गल का यदि पूदगलस्य स्वतंत्रमस्तित्वं न स्यात् तहि संगस्य स्वतंत्र अस्तित्व न हो तो संग की कल्पना भी दुर्लभ हो जाती है। कल्पनापि दुर्लभा भवति । मर्कट: स्वकृते सन्ताने बद्धो मकड़ी अपने द्वारा निर्मित जाल में फंस जाती है, उसका हेतु है भवति, तस्य हेतुरस्ति अज्ञानम् । किन्तु सर्वज्ञः आत्मा अज्ञान । किन्तु आत्मा सर्वज्ञ है, सर्वथा असंग या निलेप है, फिर वह सर्वथा असंगः सन् संगवान् भवतीति नास्ति हेतुगम्यम् । संगवान् या लेपयुक्त होती है, यह हेतुगम्य नहीं है। यदि यह प्रश्न यद्येष प्रश्नः, तदा कथं बद्ध आत्मेति सम्मतमाचारांगे?२ है तो फिर 'आत्मा बद्ध है'-यह आचारांग में कैसे सम्मत हुआ ? अत्रास्ति वक्तव्यम्-जैनानां नास्ति कश्चिद् आत्मा इस विषय में हमारा वक्तव्य यह है-जैन दर्शन के अनुसार कोई आदितो मुक्तोऽसंगो वा। असंगः संगवान् भवतीति भी आत्मा प्रारंभ से मुक्त या असंग नहीं है। असंग संगवान् होता नास्ति सम्मतं, किन्तु संगवानेव विशिष्ट प्रयोगेण संग- है, यह सम्मत नहीं है। किन्तु संगवान् ही विशेष प्रयोग के द्वारा मुक्तो भवति । यदि संगोऽनादिकालीनस्तदा कथं तस्य । संगमुक्त होता है। यदि संग अनादिकालीन है तो उसका वियोग वियोग: ? इति सत्यम् । आत्मपुद्गलयोः संबन्धः । कैसे संभव है ? यह सत्य है। आत्मा और पुद्गल का संबंध प्रवाह प्रवाहपतितो अनादिकालीनः । तेन प्रवाहस्य निरोधे की दृष्टि से अनादिकालीन है । इसलिए प्रवाह का निरोध होने पर तस्यापि निरोधो भवति ।
उसका भी निरोध हो जाता है। बन्धहेतोरज्ञानं अपरिज्ञा। तस्य ज्ञानं च परिज्ञा। बंध के हेतु का अज्ञान अपरिज्ञा है और उसका ज्ञान परिज्ञा बन्धस्य निरोधार्थ प्रयत्नः परिज्ञा। तदर्य अप्रयत्नो है। बंध के निरोध के लिए प्रयत्न करना परिज्ञा है और उसके अपरिज्ञा च । परिज्ञया बन्धस्य स्वरूपावधारणं, तस्य लिए प्रयत्न न करना अपरिज्ञा है। परिज्ञा के द्वारा बंध के स्वरूप प्रवाहनिरोधश्च जायते । तदर्थ आचारांगस्य प्रवृत्तिः । का अवधारण और उसके प्रवाह का निरोध होता है। उसके लिए
ही आचारांग की प्रवृत्ति है। अत्र बद्धमुक्तयोः द्विविधयोरपि आत्मनो निरूपणं आचारांग में बद्ध और मुक्त-दोनों प्रकार की आत्माओं का विद्यते । यो जन्म-मरणचक्रमत्येति स मुक्तो भवति-- निरूपण है । जो आत्मा जन्म-मरण के चक्र का अतिक्रमण करती 'अच्चेइ जाइमरणस्स वट्टमग्गं वक्खाय-रए। 'सब्बे है वह मुक्त हो जाती है । 'सब स्वर लौट आते हैं। इस सूत्र से सरा नियति ' अत: 'से ण सद्दे, ण रूबे, ण गंधे, ण रसे, प्रारंभ कर 'वह न शब्द है, न रूप है, न गंध है, न रस है और न
१. अंगसुत्ताणि १, ठाणं, १०१।
२. आयारो, ३।१९, ५७२ ।
३. वही, ५२१२२ ।
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