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________________ उपोद्घातः मुक्तात्मानमधिकृत्य प्रतिपादितमस्ति । संसारी आत्मा मुक्त आत्मा को लक्षित कर प्रतिपादित किया गया है। संसारी शरीरवानपि भवति, जन्मधर्मापि भवति, संगवानपि आत्मा शरीरवान् भी है, जन्म-धर्मा भी है और लेपयुक्त भी है। भवति च । आत्मा चेतनः, पुद्गलश्च अचेतनः । आत्मा अमूर्तः, आत्मा चेतन है और पुदगल अचेतन । आत्मा अमूर्त है और पुद्गलश्च मूर्ती रूपरसगन्धस्पर्शयुक्तत्वात् । पुद्गलस्य- पुद्गल रूप-रस-गन्ध और स्पर्श से युक्त होने के कारण मूर्त । अस्तित्वं नास्ति व्यावहारिकम् । यथा आत्मनोऽस्तित्वं पुद्गल का अस्तित्व व्यावहारिक नहीं है। जैसे आत्मा का अस्तित्व पारमार्थिक तथा पुद्गलस्यापि। अनयोविषयविषयि पारमार्थिक है वैसे ही पुद्गल का अस्तित्व भी पारमार्थिक है। इन संबन्धो ज्ञातृशेयसंबन्धो वा अस्ति पर्यायात्मकः न तू दोनों (आत्मा और पुद्गल) में विषय-विषयी या ज्ञातृ-ज्ञेय संबंध द्रव्यात्मकः । वयं पुद्गल जानीमः तदापि तदस्ति, न द्रव्यात्मक नहीं, पर्यायात्मक है। हम पुद्गल को जानते हैं तब भी जानीमः तदापि तदस्ति । अस्तित्वमस्ति स्वभावापेक्षं, उसका अस्तित्व है और नहीं जानते हैं तब भी उसका अस्तित्व है। न तु ज्ञानापेक्षम् । अस्तित्व स्वभाव-सापेक्ष है, ज्ञान-सापेक्ष नहीं । कथं स्यात् चेतनाचेतनयोः विरुद्धधर्मणोऽस्तित्वम् ? चेतन और अचेतन-दोनों विरोधी धर्म वाले हैं। इस अत्र वयं ब्रूमः-पदार्थाः न सन्ति सर्वथा परस्परं अवस्था में उन दोनों का अस्तित्व कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न विरुद्धाः, न च सन्ति सर्वथा अविरुद्धाः । तेषां विरोधोऽ- पर हमारा वक्तव्य यह है—पदार्थ परस्पर न तो सर्वथा विरोधी हैं विरोधश्च सापेक्ष एव। अस्तित्वं सर्वेषां पदार्थानां और न सर्वथा अविरोधी । उनका विरोध और अविरोध सापेक्ष ही समानो धर्मः । तदपेक्षया नास्ति चेतनाचेतनयोः कश्चिद् है। 'अस्तित्व' यह सब पदार्थों का समान धर्म है। इसकी अपेक्षा विरोधः । चैतन्यं आत्मनि एवेति विशिष्टो गुणः । रूप- से चेतन और अचेतन में कोई विरोध नहीं है । 'चैतन्य' आत्मा में रसगन्धस्पर्शाः पुद्गले एवेति सन्ति विशिष्टाः गुणाः। ही होता है, यह उसका विशिष्ट गुण है। रूप, रस, गंध और यथा विशिष्टधर्मापेक्षया विरोध उद्भावयितुं शक्यः तथा स्पर्श पुद्गल में ही होते हैं, इसलिए ये उसके विशिष्ट गुण हैं । जैसे सामान्यगृणापेक्षया अविरोधोऽपि उद्भावनीयो भवति। विशेष धर्म की अपेक्षा से विरोध का उद्भावन किया जा सकता एवं भेदाभेदस्वभावे वस्तूनि नाध्यास'-कल्पना भवति । है, वैसे ही सामान्य गुण की अपेक्षा से अविरोध का भी उद्भावन करणीया। किया जा सकता है। इस प्रकार भेदाभेद स्वभाव वाली वस्तु में अध्यास (भ्रान्त प्रतीति) की कल्पना नहीं करनी चाहिए। जीवशरीरयोः जीवपुद्गलयोर्वा कथंचिद् अभेदः जीव और शरीर अथवा जीव और पुद्गल में कथंचिद् अभेद स्वीकरणीय एव । अभेदस्यास्य अध्यासेन सार्ध भेदो वर्तत स्वीकार करना ही होगा। यह अभेद अध्यास से भिन्न है। अध्यास एव । अध्यासस्वीकरणे पुदगलस्य अस्तित्वं सवंर्थव को स्वीकृत करने पर हमें पुद्गल का अस्तित्व सर्वथा अस्वीकार अस्वीकरणीयं स्यात् । अध्यासस्य स्थाने यदा व्यवहारः करना होगा। 'अध्यास' के स्थान पर यदि हम 'व्यवहार' को स्वीक्रियते तदा निश्चयव्यवहारयो)दस्य प्रतिपादनं स्वीकार करें तो 'निश्चय' और 'व्यवहार' का भेद-प्रतिपादन अपेक्षितं स्यात् । निश्चयनयेन नास्ति जीवशरीरयोर अपेक्षित होता है । निश्चयनय के अनुसार जीव और शरीर में अभेद भेदः । व्यवहारनयेन तु अस्त्येव सः। अत्र पुनर्भेदाऽभेद नहीं है। व्यवहारनय के अनुसार जीव और शरीर में अभेद है ही। योरनयोः स्वरूपं स्पष्टमवगन्तव्यम् । अस्मिन् प्रसंगे हमें भेद और अभेद का स्वरूप भी स्पष्ट समझ लेना चाहिए। इस सांख्यदर्शने प्रतिपादितः प्रकृतिपुरुषयोः संबन्धः प्रसंग में सांख्य दर्शन में प्रतिपादित प्रकृति और पुरुष का सम्बन्ध विचारणीयः। वेदान्तदर्शने वा प्रतिपादितं ब्रह्मणः मननीय है। वेदांत दर्शन में प्रतिपादित ब्रह्म की सत्यता और सत्यत्वं जगतः सर्वथा मिथ्यात्वं चापि विवेचनीयम्। जगत् की सर्वथा अयथार्थता भी विवेचनीय है। निश्चय और नास्ति निश्चयव्यवहारयोः सर्वथा भेदः। उभावपि व्यवहार में सर्वथा भेद नहीं है। दोनों सापेक्ष हैं। निश्चयनय सापेक्षौ । निश्चयनयेन जीवशरीरयोः ऐकान्तिकः अभेदो की दृष्टि से जीव और शरीर में ऐकान्तिक अभेद स्वीकार नहीं न स्वीकरणीयः । एवमैकान्तिको भेदोऽपि व्यवहारनयेन किया जा सकता। इसी प्रकार व्यवहारनय की दृष्टि से जीव और नैव अभ्युपगन्तव्यः । इयमनेकान्तपद्धतिरेव अध्यास- शरीर में ऐकान्तिक भेद भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। व्यवहारयोर्भेदनिरूपणे आश्रयणीया। अध्यास और व्यवहार के भेद-निरूपण में इस अनेकान्त पद्धति का ही आश्रय लेना अपेक्षित है। १. अध्यासो नाम अस्मिस्तबुद्धिः, अयथार्थानुभवः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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