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प्रत्येकं पदार्थ सामान्यविशेषात्मको विद्यते । सामान्यधर्माणामपेक्षया तस्यैकत्वमभिप्रेतम् । अयं संग्रहनयस्य विषयः । विशिष्टधर्मान् अपेक्ष्य तस्य नानात्वमपीष्टम् । अयं व्यवहारनयस्य विषयः । एकत्वे नानात्वे च नास्ति सर्वथा विरोधः अत्र विरोधोऽविरोधश्व द्वावपि सापेक्षौ निरपेक्षमस्ति पदार्थस्य अस्तित्वम् । तत्र नास्ति एकत्वं वा नानात्वं वा एकत्वं नानात्वं च संख्यामथितो धर्मः अयं सापेक्ष एव भवति । यत्र अभेदव तिरभेदोपचारो वा भवति तत्र एकत्वधर्मः प्रधानीभवति नानात्वधर्मश्च उपसर्जनीभवति । यत्र भेदवृत्तिः तत्र नानात्वधर्म प्रधानीभवति एकत्वधर्मश्च उपसर्जनीभवति । अनयोः प्रधान गौणभावयो: विवक्षातो भेदमापनस्यापि पदार्थस्य क्वचित् कदाचिद् एकत्वं प्रतिपादितं भवति । तस्य अभेदमापन्नस्यापि क्वचित् कदाचिद नानात्वं प्रतिपादितं भवति । इत्येकत्वनानावयोः नास्ति अपरिहार्यो विरोधः किन्तु सापेक्षोऽयम् ।
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आत्मा संसारदशायां प्राणभूत जीव सरवपदैरभिधेयोस्ति समभिरू नयेन एतेषु भिद्यमानेष्वपि द्रव्यास्तिकनयदृष्ट्या नास्ति कोपि भेदः । अत एवोक्तम्'णो हीणे णो अरिते ।"
आत्मनोऽस्तित्वमस्ति स्वतन्त्रम् अत एवास्ति तस्य कर्तृत्वम् । स न ईश्वरप्रेरितः प्रवर्तते निवर्तते च । किन्तु स्वसंकल्पेनैव प्रवर्तते निवर्तते च । अत एव निर्दिष्टं भगवता पुरिसा ! परमचक्खू ! विपर
क्कमा ।"
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पराक्रमस्य सार्थकता तदानीमेव यदा बन्धमोक्षयोः शक्तिः स्वसन्निहिता भवेत् । अस्य प्रश्नस्य समाधानं कृतं सूत्रकारेण वथा- 'बंध-पमोक्खो तुम्भ अग्भत्य ।" यदि आत्मातिरिक्तः कश्चित् पदार्थों बढो मुक्तो वा भवति यथा सांख्यदर्शने प्रकृतिः, तदा नात्मनः कर्तृ त्वं स्यात् । आचारांगस्य हृदयमिदं संसारी आत्मा नास्त्यसंगः, अत एव स निरन्तरं कर्मभिर्बध्यते । स कर्मभिः बध्यते अत एव तस्य कर्मशरीरं भवति सहवति । स कर्मशरीरेण संयुक्तः सन् नवानि नवानि स्थूलशरीराणि अथवा औदारिकादिशरीराणि निर्माति स एव सम स्वानुभूत्या कर्मशरीरस्य वियोजनं कृत्वा मुक्तो भवति । यदुक्तं 'ण संगे', 'ण काळ", "ण रहे" इति सर्व
१. आयारो, २०४९ । २. वही, ५। ३४ ।
३. वही, ५।३६ ।
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आचारांग माध्यम्
प्रत्येक पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है। सामान्य धर्मो की अपेक्षा से उसकी एकता अभिप्रेत है। यह संग्रहनय का विषय है । विशेष धर्मों की अपेक्षा से उसका नानात्व भी इष्ट है। यह व्यवहारनय का विषय है। एकत्व और नानात्व में सर्वथा विरोध नहीं है। यहां विरोध और अविरोध दोनों सापेक्ष हैं । निरपेक्ष है पदार्थ का अस्तित्व । उसमें एकत्व या नानात्व कुछ भी नहीं होता । एकत्व और नानात्व संख्या पर आश्रित धर्म है। यह सापेक्ष ही होता है। जहां अभेदवृत्ति या अभेदोपचार होता है वहां एकत्व धर्म प्रधान हो जाता है और नानात्व धर्म गौण। जहां भेदवृत्ति होती है वहां नानात्व धर्म प्रधान हो जाता है और एकत्व धर्म गौण । इन प्रधान और गौण भावों की विवक्षा से भेद को प्राप्त पदार्थ का भी कहींकभी एकत्व प्रतिपादित होता है और अभेद को प्राप्त पदार्थ का भी कहीं - कभी नानात्व प्रतिपादित होता है । इस प्रकार एकत्व और नानात्व में अपरिहार्य विरोध नहीं है, किन्तु यह सापेक्ष विरोध है ।
संसारी आत्मा प्राण भूत जीव और सत्त्व इन पदों से अभिहित होती है। समभिनय की दृष्टि से इनमें किनता होने पर भी द्रव्यादिक नय की दृष्टि से इनमें कोई भेद नहीं है, इसीलिए कहा गया है न कोई आत्मा हीन है और न कोई आत्मा अतिरिक्त ।'
आत्मा का अस्तित्व स्वतंत्र है, इसीलिए उसका अपना कर्तृत्व है । वह ईश्वर से प्रेरित होकर प्रवृत्त और निवृत्त नहीं होती, किंतु अपने संकल्प से ही प्रवृत्त और निवृत्त होती है। इसीलिए भगवान् ने कहा - 'परम चक्षुष्मान् पुरुष ! तू पराक्रम कर ।'
पराक्रम की सार्थकता तभी होती है जब बन्ध और मोक्ष की शक्ति अपने में निहित हो । सूत्रकार ने इस प्रश्न का समाधान किया है-बंध और मोक्ष तुम्हारी आत्मा में ही है । यदि आत्मा के अतिरिक्त कोई पदार्थ बद्ध या मुक्त होता है, जैसे सांख्य दर्शन में प्रकृति, तब आत्मा का कर्तृत्व नहीं रहता । आचारांग का हृदय यह है - संसारी आत्मा असंग नहीं है, इसीलिए वह कर्मों से निरंतर बद्ध होती है । वह कर्मों से बद्ध होती है, इसीलिए कर्म - शरीर उसका सहवर्ती होता है यह कर्म शरीर के साथ संयुक्त होकर नए-नए स्थूल शरीर अथवा औदारिक आदि शरीरों का निर्माण करती है। वही आत्मा समत्व की अनुभूति से कर्म शरीर का वियोजन कर मुक्त हो जाती है जैसे कहा है वह लेपयुक्त नहीं है, यह शरीरधारी नहीं है, वह जन्म-धर्मा नहीं है यह सब
४. वही, ५।३४ ॥
५. वही, ५।१३२ ।
६. वही, ५।१३३ ।
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