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________________ उपोद्घातः अथातः आचारांगविमर्शः। प्रारंभ हो रहा है आचारांग का विमर्श । १. अस्ति आत्मा।' १. आत्मा है। २. अस्ति पुद्गलः । २. पुद्गल है। ३. अस्ति तयोरनादिः संयोगः । ३. उन दोनों का संयोग अनादि है। ४. पुद्गलसंयुक्तः आत्मा औपपातिकः ।। ४. पुद्गल-संयुक्त आत्मा औपपातिक (पुनर्जन्मधर्मा) है। ५. अस्ति तस्यानुसंचरणम् ।" ५. वह अनुसंचरण करती है। ६. अस्ति अनुसंचरणस्य हेतुः ।' ६. अनुसंचरण का हेतु है। ७. अस्ति अनेकरूपा योनिः ।" ७. योनि के अनेक रूप हैं। ८. अस्ति दुःखम् । ८. दुख है। ९. अस्ति दुःखस्य हेतुः।' ९. दुःख का हेतु है। १०. अस्ति दुःखस्य निरोधः । १०. दुःख का निरोध है। ११. अस्ति निरोधस्य मार्गः ।" ११. निरोध का मार्ग है। १२. अस्ति आत्मनो नानात्वम् । १२. आत्मा का नानात्व है। सन्ति अनन्ता आत्मानः। ते सर्वेऽपि सन्ति आत्माएं अनन्त हैं। उन सबका अस्तित्व पृथक्-पृथक् है । पृथक्सत्त्वाः, सर्वेषां स्वतन्त्रमस्तित्वमिति यावत् । तेन तात्पर्य की भाषा में सबका अस्तित्व स्वतंत्र है। वे किसी एक सन्ति कश्चिद् एकस्य ईश्वरस्यांशभूताः, न च कस्यचिद् ईश्वर की अंशभूत नहीं हैं और किसी ब्रह्म की प्रपंचभूत नहीं हैं। ब्रह्मणः प्रपञ्चभूताः । 'जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं'- 'सुख और दुःख व्यक्ति का अपना अपना होता है'-बार-बार यह वारं वारं अस्य उद्घोषोऽस्ति आत्मनः स्वातन्त्र्यस्य घोष आत्मा की स्वतंत्रता की उद्घोषणा करता है। उद्घोषणा ।१२ 'तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि'"-- 'जिसे तू हननयोग्य मानता है, वह तू ही है'-इस सूत्र में इत्यस्मिन् सूत्रे आत्मन एकत्वमिष्टमस्ति । तथा 'जे एगं आत्मा का एकत्व इष्ट है और 'जो एक को जानता है, वह सबको जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ'१४ जानता है और जो सबको जानता है, वह एक को जानता है'-इस अस्मिन्नपि एकमेव तत्त्वं अभिप्रेतमस्ति । अस्ति सर्व सूत्र में भी एक ही तत्त्व अभिप्रेत है । यह सारा विस्तार उसी का तस्यैव प्रपञ्चः । तत् कथमात्मनो नानात्वं वास्तविकम् ? है, तब आत्मा का नानात्व कसे वास्तविक हो सकता है ? एकता कथञ्चैकत्वस्य नानात्वस्य च विरोधः परिहार्यः। और नानात्व का विरोध कैसे मिटाया जा सकता है ? वयं नयेन विरोधपरिहारं कूर्मः। अत्र द्वौ नयौ हम नय-पद्धति के द्वारा विरोध का परिहार कर सकते हैं । प्रयोक्तव्यौ----संग्रहो व्यवहारश्च । अस्ति पदार्थेषु । इस प्रसंग में संग्रह और व्यवहार-इन दो नयों का प्रयोग करना सामान्यो धर्मः। तमपेक्ष्य संग्रहनयः प्रवर्तते। अस्ति चाहिए । पदार्थों में सामान्य धर्म हैं। उनकी अपेक्षा से संग्रहनय की पदार्थेषु विशिष्टो धर्मः । तमपेक्ष्य व्यवहारनयः प्रवर्तते। प्रवृत्ति होती है । पदार्थों में विशेष धर्म हैं। उनकी अपेक्षा से व्यवहारनय की प्रवृत्ति होती है। १. आयारो, १४॥ २. वही, ३।४। ३. वही, ३१८३॥ ४. वही, १।४। ५. वही, ११४। ६. वही १८ २१५५॥ ७. वही, १८ ८. वही, १०८। ९. वही, १८ १०. वही, ४॥५१॥ ११. वही, २।१७१-१७३। १२. वही, २२२२, ७८,५२४,५२ । १३. वही, ४१०१। १४. वही, ३.७४ । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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