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अ० ५. लोकसार, ३०४. सूत्र ६३-६६
६७. एवं कुसलस्स दंसणं ।
सं०-- एतत् कुशलस्य दर्शनम् ।
यह महावीर का दर्शन है।
भाष्यम् ६७ -- अव्यक्तस्य एकाकिविहारं कुर्वतः ये दोषा उपदिष्टाः, तदेतत् कुशलस्य- भगवती महावीरस्य हैं, यही दर्शन कुशल- भगवान् महावीर का है। दर्शनमस्ति ।
माध्यम् ६० साधकपुरुषः तस्मिन् कुशलदर्शने दृष्टि नियोज्य विहरेत् तदृष्टिको भवेत्। यदुपदिष्टं तस्य अनुपालन कर्तुं तन्मयः तन्मूतिको वा भवेत् । उपदिष्टं निरन्तरं सम्मुखीकृत्य तत्पुरस्कारः स्यात् । तस्य स्मृतौ एकरसो भूत्वा तत्संज्ञी भवेत् तथा तस्मिन् चित्तस्य निवेशनं कृत्वा तनिवेशनः स्वात् '
६८. तद्दिट्ठीए तम्मोत्तीए तप्पुरवकारे, तस्सण्णी तन्निवेसणे ।
सं०दृष्टिकः तन्मूर्तिकः तत्पुरस्कार: तत्संही निवेशन ।
मुनि महावीर के दर्शन में वृद्धि नियोजित करे, उसमें समय हो, उसे प्रमुख बनाए, उसको स्मृति में एक रस हो और उसमें तनिष्ठ हो जाए ।
भाष्यम् ६९ – इदानीं ईर्याविधि निर्दिशति सूत्रकारः । मुमुक्षुः पुरुषः संयमपूर्वकं विहरणं कुर्यात्, तस्य चित्तं गमन एव निपतितं स्यात्, अहं गच्छामि इति क्रियायामेव स्मृति नियोजयेत् तस्य दृष्टिः गमनपथ एव निवद्वा स्वात् प्रतिपदं पन्थानं दृष्ट्वा व्रजेत् । अभिमुख मागच्छतः प्राणिनो दृष्ट्वा स्वपादयोः संकोचं कुर्यात्। पथि विहरतः प्राणिनो दृष्ट्वा गच्छेत्। १. चूर्णिकार ने ६८ वे सूत्र की व्याख्या आचार्यपरक और ६९ वें सूत्र की व्याख्या ईर्यापरक की है। टीकाकार ने दोनों सूत्रों की व्याख्या आचार्यपरक की है। केवल 'पासिय पाणे गच्छेज्जा' इस वाक्य की ईर्यापरक व्याख्या की है। दोनों व्याख्याकारों ने यह बतलाया है कि ६९ वे सूत्र से आयारचूला के ईर्या नामक तीसरे अध्ययन का विकास किया गया है । चूर्णिकार ने आधारचूला के उपोद्घात में लिखा है कि ६२,६८,६९ और ७० में सूत्रों से ईर्ष्या नामक अध्ययन विकसित किया गया है ।
उक्त संदर्भों तथा उत्तराध्ययन २४८ के 'तम्मुत्ती
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एकाकी विहार करने वाले अव्यक्त पुरुष के जो दोष उपदिष्ट
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६६. जयंविहारी चित्तणिवातो पंथणिज्झाती पलीवाहरे, पासिय पाणे गच्छेज्जा । सं० तं बिहारी विनिपाती पथनिदृष्यावी 'पत्नीवाह' दृष्ट्वा प्राणान् गच्छेत् ।
मुनियपूर्वक वित्त को गति में एक कर पय पर दृष्टि टिका कर चले जीव-जन्तु को देख कर पैर को संकुचित कर ले और मार्ग में आने वाले प्राणियों को देख कर चले ।
साधक पुरुष महावीर के उस दर्शन में दृष्टि नियोजित कर तद्दृष्टि बन जाए जो उपदिष्ट है उसकी अनुपालना करने के लिए तन्मय अथवा तन्मूति बन जाए। उस उपदेश को सदा सामने रख कर तत्पुरस्कार — उसे प्रमुख बना कर चले । उसकी स्मृति में एकरस होकर तत्संज्ञी बन जाए और उसमें दत्तचित्त होकर तन्निष्ठ हो
जाए ।
प्रस्तुत आलापक में सूत्रकार ईर्यापथविधि का निदर्शन करते हैं । मुमुक्षु पुरुष संयमपूर्वक विहरण करे । उसका चित्त गमन में ही लीन हो जाए। 'मैं चल रहा हूं' इस गमन क्रिया में ही वह स्मृति का नियोजन करे उसकी दृष्टि गमन-मार्ग पर ही लगी रहे। वह पगपग पर मार्ग को देखता हुआ चले चलते समय मार्ग में सामने आने वाले प्राणियों को देख कर अपने पैरों को संकुचित कर ले, वहीं रोक ले मार्ग में आने वाले प्राणियों को देख कर बने ईच के विषय । ईर्यापथ तप्पुरस्कारे उवउत्ते' – इन शब्दों के आधार पर इन दोनों सूत्रों का अनुवाद ईर्यापरक किया जा सकता है, किन्तु हमने ५।१०९ की चूर्णि के आधार पर सूत्र ६८ का कुशल (महावीर ) परक अनुवाद किया है। २०११ में भूमिकार ने कुशलदर्शनपरक व्याख्या की है और वृत्तिकार ने आचार्यपरक व्याख्या की है। देखें- चूणि, पृष्ठ १९६ तथा वृत्ति, पत्र २०६ ॥
२. एक 'लीबाहरे' इति पदस्य अनुवादो विद्यते 'लीवाहरे' प्रतीपं आहरे जंतुं दृष्ट्वा संकोचए वेसीमासाए ।' (आचारांग भूणि, पृष्ठ १८४)
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