SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६६ आचारांगभाष्यम् ६३. वयसा वि एगे बुइया कुप्पंति माणवा। सं०-वचसाऽपि एके उक्ताः कुप्यन्ति मानवाः । अव्यक्त मनुष्य थोड़े-से प्रतिकूल वचन से भी कुपित हो जाते हैं । भाष्यम् ६३–एके केचिद् अव्यक्ता मानवाः अप्रियेण कुछ एक अव्यक्त मनुष्य अप्रिय वचन से संबोधित होने पर भी वचसा संबोधिता: अपि कुप्यन्ति, प्रतिकूलां वाचमाकर्ण्य कुपित हो जाते हैं। वे प्रतिकूल वचन को सुन कर आवेश से अभिभूत आवेशाभिभूता भवन्ति । एष साधनायामुपद्रवः । हो जाते हैं। यह साधना में उपद्रव है। ६४. उन्नयमाणे य गरे, महता मोहेण मुज्झति । सं०-उन्नयमानश्च नरः महता मोहेन मुह्यति । अव्यक्त मनुष्य अहंकारग्रस्त होकर महान् मोह से मूढ हो जाता है। भाष्यम् ६४–अव्यक्तो नरः लोकैः कृतां प्रशंसामा- अव्यक्त पुरुष लोकों द्वारा की गई प्रशंसा को सुनकर अहंकार कर्ण्य उन्नयमानः-अहंकाराभिभूतः महता मोहेन से पराभूत हो महान् मोह से मूढ हो जाता है। यह भी साधना में मुह्यति । एषोऽपि साधनायामुपद्रवः। अव्यक्तः प्रशंसा- उपद्रव है। अव्यक्त मनुष्य प्रशंसा से पराजित होकर कभी दर्शनमोह पराजितः कदाचित् दर्शनमोहेन मूढो भवति कदाचिच्च से मूढ होता है और कभी चारित्रमोह से मूढ होता है। चारित्रमोहेन । ६५. संबाहा बहवे भुज्जो-भुज्जो दुरतिक्कमा अजाणतो अपासतो। सं०-सम्बाधाः बहवः भूयो भूयो दुरतिक्रमाः अजानतः अपश्यतः । अज्ञानी और भद्रष्टा मनुष्य बार-बार आने वाली बहुत सारी बाधाओं का पार नहीं पा सकता। भाष्यम् ६५-तस्य अजानतः अपश्यतः अव्यक्तस्य उस अज्ञानी, अद्रष्टा और अव्यक्त पुरुष के समक्ष अनेक बहवः संबाधा:-परीषहोपसर्गाः पुनः पुनः अवतरन्ति । बाधाएं-परीषह और उपसर्ग बार-बार अवतरित होते रहते हैं। वह स न जानाति न पश्यति एते परीषहोपसर्गाः कथं नहीं जानता-देखता कि इन परीषहों और उपसर्गों को कैसे सहा जाये सोढव्याः भवन्ति, एतेषां सहने को नाम लाभः असहने और इनको सहने से क्या लाभ होता है और न सहने से क्या हानि च को नाम दोषः ? तेन तस्य ते दुरतिक्रमाः भवन्ति। होती है ? इसलिए उस व्यक्ति के लिए वे परीषह और उपसर्ग दुरतिक्रम हो जाते हैं। ६६. एयं ते मा होउ। सं०-एतत् तव मा भवतु । 'मैं अव्यक्त अवस्था में अकेला विहार करूं'-यह तुम्हारे मन में न हो। भाष्यम् ६६-अव्यक्तावस्थायां 'अहमेकाकी गुरु शिष्य को उपदेश देते हैं-'शिष्य ! अव्यक्त अवस्था में विहरामि' एतादृशः संकल्पः तव मनसि मा भवतु, एष तेरे मन में यह संकल्प न हो कि मैं अकेला विहरण करूं ।' शिष्यं प्रति गुरोरुपदेशः। यदि अव्यक्तः एकाकिविहारं कर्तुमिच्छेत् तदा यदि अव्यक्त अवस्था में मुनि अकेला विहरण करने की इच्छा आचारव्यवस्थाया विघटनं जायते। अर्हच्छासने करता है तब आचार-व्यवस्था का विघटन हो जाता है। अर्हत् सामुदायिकसाधनापद्धति: निर्विकल्पा नास्ति । एकाकि- शासन में सामुदायिक साधना-पद्धति ही मान्य नहीं है, 'एकाकी' साधनाऽपि सम्मताऽस्ति, किन्तु तस्याः अर्हता अस्ति साधना भी सम्मत है। किन्तु वहां 'एकाकी' साधना की अर्हता निर्दिष्टा । अर्हः पुरुषः एकाकिविहारस्य संकल्पं निर्दिष्ट है। एकाकी साधना के लिए योग्य व्यक्ति ही 'एकाकी कर्तुमर्हति । अनर्ह लक्ष्यीकृत्यैव एष निषेधो वर्तते। विहार' का संकल्प कर सकता है । जो एकाकी साधना के योग्य नहीं है, उसी को लक्ष्य कर यह निषेध किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy