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ईर्यापथविषये एते पञ्च निर्देशाः सन्ति ।
में ये पांच निर्देश हैं ।
७०. से अभिक्कममाणे पक्किममाणे संकुचेमाणे पसारेमाणे विनियमाणे संपलिमज्जमाणे ।
सं० -- स अभिक्रामन् प्रतिक्रामन् संकोचयन् प्रसारयन् विनिवर्तमानः संपरिमृजन् ।
वह पुरुष सामने जाने, वापस आने, संकोच, प्रसार, विनिवर्तन और संपरिमार्जन करने की क्रिया संयमपूर्वक करता है ।
भाष्यम् ७० - स मुमुक्षुः पुरुषः कदाचिदभिक्रामति, मुमुक्षु पुरुष कभी आगे जाता है। कभी पीछे लौटता है, कभी कदाचित् प्रतिक्रामति, कदाचिद् हस्तपादादीन् वह हाथ पैरों को संकुचित करता है, कभी उन्हें फैलाता है, कभी वह संकोचयति कदाचित् प्रसारयति कदाचिद् गमना- गमन और आगमन से निवृत्त हो जाता है और शरीर में लगे प्राणियों गमनादृ विनिवर्तते तथा शरीरविलग्नान् प्राणिन का संयमपूर्वक परिमार्जन करता है। संयमपूर्वकं संपरिमाष्टि ।
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७१. एगया गुणसमियस्स रीयतो कायसंफासमणुचिण्णा एगतिया पाणा उद्दायंति ।
सं०--- एकदा गुणसमितस्य रीयमाणस्य कायसंस्पर्शमनुचीर्णाः एके प्राणा: अवद्रान्ति ।
किसी समय प्रवृत्ति करते हुए अप्रमत्त मुनि के शरीर का स्पर्श पाकर कुछ प्राणी परितप्त होते हैं या मर जाते हैं ।
भाष्यम् ७१ - गुणाः ईर्यासमितिप्रभृतयः तैर्युक्तः गुणसमितः स एकदा रीयमाणोऽस्ति तदानीं तस्य कायसंस्पर्श संप्राप्य केचित् प्राणा: उपद्रुताः भवन्ति म्रियन्ते वा । अस्यामवस्थायां तस्य कर्मबन्धो भवति न वा ? इति जिज्ञासायामत्र कर्मबन्धविचित्रतायाः
सिद्धान्तः अवगन्तव्यः
शैलेशी दशामुपगतस्य कर्मबन्धो न जायते । सयोगस्य वीतरागस्य द्विसामयिक ईर्यापथिकः बन्धो भवति अप्रमत्तसंयतेः जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तस्थितिकस्य उत्कृष्ट तोऽष्टमुहूर्त्तस्थितिकस्य कर्मणो बन्धो जायते । प्रमत्तसंयतेः नास्ति हिंसाभिमुखता तदानीं जघन्यत अन्तमुहूर्त्तस्थितिकस्य उत्कृष्टतः अष्टसंवत्सर स्थिति कस्य कर्मणो बन्धो जायते स च तेनैव भवेन क्षीयते इति साक्षात् सूत्रेण निरूप्यते
ईयासमिति आदि गुण हैं। जो इनसे युक्त होता है वह गुणसमित कहलाता है। वह किसी समय विहरण कर रहा है। उस समय उसके शरीर का स्पर्श पाकर कुछ प्राणी परिवप्त होते हैं अथवा मर जाते हैं । इस अवस्था में उसके कर्मबन्ध होता है या नहीं ? इस जिज्ञासा के संदर्भ में कर्मबन्ध की विचित्रता का सिद्धांत जानना चाहिए—
७२. इहलोग वेयण - वेज्जावडियं ।
सं० -- इहलोकवेदनवेद्यापतितम् ।
उसके वर्तमान जीवन में भोगे जाने वाले कर्म का बंध होता है।
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आचारांग भाव्यम्
शैलेशी अवस्था को प्राप्त अनगार के कर्मबन्ध नहीं होता सयोगी बीतराग अनगार के दो समय की स्थिति बाला 'ईर्यापथिक' बन्ध होता है। अप्रमत संयती अनगार ( सातवें से तेरहवें गुणस्थानवर्ती) के जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाला और उत्कृष्टतः आठ मुहूर्त्त की स्थिति वाला कर्मबन्ध होता है । प्रमत्त संयत (छठे गुणस्थानवर्ती मुनि) के यदि हिंसाभिमुखता नहीं है तो जो कर्मबन्ध होगा वह जघन्यतः अन्तर्मुह की स्थिति वाला और उत्कृष्टतः आठ वर्ष की स्थिति वाला होगा । वह कर्मबन्ध उसी भव में क्षीण हो जाता है, यह तथ्य अगले सूत्र में साक्षात् निरूपित है—
भाष्यम् ७२ - विधिपूर्वक प्रवृत्ति कुर्वाणस्य हिंसाभिमुखतामृते प्रमत्तसंयतेः कायस्पेशेन कश्चित् प्राणी परितप्तः मृतो वा भवेत्, तदानीं तस्य इहलोक - वेदनवेद्यापतितं - ऐहिकभवानुबन्धि कर्म उपात्तं भवति ।
१. तुलना पतंजलयोगदर्शन २।१२ मलेशः कर्माशयी दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ।
छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्त संयत मुनि विधिपूर्वक प्रवृत्ति कर रहा उसमें हिंसा के प्रति अभिमुखता नहीं है उस मुनि के कामस्पर्श से कोई प्राणी परितप्त हो या मर जाए तो उसके ऐहिकभवानुबंधिवर्तमान जीवन में भोगे जाने वाले कर्म का बन्ध है।
है
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