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आचारांगभाष्यम
७४. एवं से अप्पमाएणं, विवेगं किट्टति वेयवी ।
सं०–एवं तस्य अप्रमादेन विवेक कीर्तयति वेदवित् । विलय अप्रमाद से होता है-सूत्रकार ने ऐसा कहा है।
भाष्यम् ७४--एवं तस्य प्रमादेन कृतस्य कर्मणः प्रमाद से किए हुए उस कर्मबंध का विलय अप्रमाद से होता है, अप्रमादेन विवेको जायते इति वेदविद:-शास्त्रज्ञस्य यह शास्त्रज्ञ द्वारा सम्मत है । स्थानांग सूत्र में कहा है-- सम्मतम् । उक्तञ्च स्थाने
भंते ! दुक्खे कहं वेइज्जति ? अप्पमाएणं'।' 'भंते ! दुःख का बेदन कैसे होता है ? अप्रमाद से।' ७५. से पभूयदंसी पभूयपरिणाणे उवसंते समिए सहिते सया जए दळु विप्पडिवेदेति अप्पाणं
सं०–स प्रभूतदर्शी प्रभूतपरिज्ञानः उपशांतः समितः सहितः सदा यतः दृष्ट्वा विप्रतिवेदयति आत्मानम् - विपुलदर्शी, विपुलज्ञानी, उपशांत, सम्यक् प्रवृत्त, सहिष्णु सदा संयत मुनि स्त्री-जन को देख कर मन में सोचता है--
भाष्यम् ७५-इन्द्रियजयः प्रकृष्टसाधनासाध्योऽस्ति। विशेष साधना के द्वारा ही इन्द्रियों पर विजय पाई जा सकती साधनाया इमे सन्ति हेतवः२...
है । साधना के ये हेतु हैं१. प्रभूतदर्शनं-प्रभूतं कर्मविपाकस्य दर्शनम् ।
१. प्रभूतदर्शन-कर्मों के विपाक को बार-बार अथवा अत्यंत
गहराई से देखना। २. प्रभूतपरिज्ञानं-प्रभूतं बन्धस्य बन्धमुक्तेश्च २. प्रभूतपरिज्ञान-बंध और बंधमुक्ति का प्रभूत परिज्ञान ।
परिज्ञानम् । ३. उपशमनं-कषायाणां नो-कषायाणां च उपशमः । ३. कषायों और नो-कषायों का उपशमन । ४. समितिः-सम्यकप्रवृत्तिः, सततं स्वाध्यायादिषु ४. सम्यक् प्रवृत्ति करना, सतत स्वाध्याय आदि में प्रवृत्त प्रवर्तनम् ।
होना। ५. सहिष्णुता-परीषहाणां विशेषतः कामादीनां ५. परीषहों को सहना, विशेषत: मन में उत्पन्न होने वाले ___ मानसिकानां वेगानां सहनम् ।
काम आदि के आवेगों को सहन करना । ६. सदा यत:-सदा संयमः । सदा इन्द्रियोद्दीपकेभ्यः ६. सदा संयम में रत रहा । इन्द्रियों के उद्दीपक विषयों से विषयेभ्य: विरतिः।
सदा विरत रहना। एतान् उपायान् अनुवर्तमानः स इन्द्रियजयाय
इन उपायों का अनुवर्तन करने वाला वह इन्द्रिय-जय के लिए प्रवर्तमानः पुरुषः स्त्रीजनं कामलीलायै चेष्टमानं प्रवृत्त मनुष्य कामलीला के लिए उद्यत स्त्रीजन को देखकर मन में दृष्ट्वा आत्मानं विप्रतिवेदयति–पर्यालोचयति- पर्यालोचन करता है७६. किमेस जणो करिस्सति ?
सं०-किमेष जनः करिष्यति ? यह जन मेरा क्या करेगा?
भाष्यम् ७६ अहं आत्मनि प्रतिष्ठितोस्मि, तेन एष जन:--कामासक्तः स्त्रीजनः मम किं करिष्यति ? - १. अंगसुत्ताणि १, ठाणं, ३।३३६ । २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १८५ : पभूतं--बहुगं दरिसणं
पभूतपन्नाणं, अहवा पभूतं खाइतं दरिसणं, पभूतं
पण्णाणं खाइयं णाणं । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १९७ : प्रभूतं प्रमादविपाका
'मैं आत्मा में प्रतिष्ठित हूं', इसलिए ये कामासक्त स्त्रियां मेरा क्या करेंगी ?
दिकमतीतानागतवर्तमानं वा कर्मविपाक द्रष्टुं शीलमस्येति प्रभूतदर्शी, सांप्रतेक्षितया न यत्किञ्चिनकारीत्यर्थः, तथा प्रभूतं सत्त्वरक्षणोपायपरिज्ञानं संसारमोक्षकारणपरिज्ञानं वा यस्य स प्रभूतपरिज्ञानः, यथावस्थितसंसारस्वरूपदर्शीत्यर्थः॥
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