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________________ अ० प. विमोक्ष, उ० ६. सूत्र -१०५ १०४. जमेयं भगवता पवेइयं तमेव अभिसमेच्छा सव्यतो सम्बत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया । सं० यदिदं भगवता प्रवेदितं तदेव अभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया समत्वमेव समभिजानीयात् । भगवान् ने जैसे स्वाद-लाघव का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, सर्वात्मना (सम्पूर्ण रूप से) समत्व का सेवन करे -- किसी की अवज्ञा न करे । " भाष्यम् १०१-१०४ - स्पष्टम् । स्पष्ट है । १०५. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति-से गिलामि च खलु अहं इमंसि समए इमं सरीरगं अणुपुव्वेण परिवहित्तए, से आणुपुवेणं आहारं संवट्टेज्जा, आणुपुव्वेणं आहारं संवट्टेत्ता, कसाए पए किच्चा, समाहियच्चे फलगावयट्ठी, उट्ठाय भिक्खू अभिनिव्ड सं० – यस्य भिक्षोः एवं भवति - अथ ग्लायामि च खलु अहमस्मिन् समये इदं शरीरकं अनुपूर्वेण परिवोढुं स आनुपूर्व्या आहारं संवर्तत्वानुपू आहारं संवर्त्य, कथायान् प्रतवून् कृत्वा समाहिताचं फलकावतष्टी उत्पाद भिक्षु अभिनि तार्चः । : जिस भिक्षु को ऐसा संकल्प होता है मैं इस समय समयोचित क्रिया करने के लिए इस शरीर को वहन करने में ग्लान हो रहा हूं। वह भिक्षु क्रमशः आहार का संवर्तन करे। आहार का संवर्तन कर कषायों को कृश करे । ३८७ कषायों को कृश कर समाधिपूर्ण भाव वाला, फलक की भांति शरीर और कषाय-दोनों ओर से कृश बना हुआ भिक्षु समाधि-मरण के लिए उत्थित होकर शरीर को स्थिर शांत करे । भाष्यम् १०५ यो भिक्षुः रोगेणाक्रान्तः एवं अनुभवति - अहं अनुपूर्वेण यथासमयमावश्यक क्रियाकरण तथा इदं शरीरं परिवोद्धुं असमर्थोस्मि तादृशः भिक्षु अनुपु आहारं संवर्तयेत् —संक्षिपेत् । एषः समाधि मरणाय क्रियमाणाया: संलेखनायाः विधिः प्रतिपादित सूत्रकारेण । तस्याः प्रथममङ्गमस्ति आहारस्य संवर्तनम् ।' १. प्रस्तुत सूत्र में भाव-संलेखना ( कषाय का अल्पीकरण) और द्रव्य-संलेखना (आहार का अल्पीकरण) की विधि निर्दिष्ट है। आहार के अल्पीकरण की विधि इस प्रकार है । आचारांग नियुक्ति में द्वादश वर्षीय संलेखना का क्रम इस प्रकार बतलाया गया है-प्रथम चार वर्ष में विचित्र तप १ २ ३ ४ ५ दिन के उपवास किए जाएं। तपस्या के पारण में दूध आदि विकृति लेना अथवा न लेना दोनों सम्मत हैं । दूसरे चार वर्षों में विचित्र तप का अनुष्ठान प्रथम वर्ष की भांति किया जाता है। उपवास के पारणे में दूध आदि विकृति वर्जित होती है। नौवें और दसवें वर्ष में एकांतरित आचाम्ल किया जाता है-एक दिन उपवास और दूसरे दिन उपवास के पारण में आचाम्ल । ग्यारहवें वर्ष के पहले छह महीनों में एक उपवास अथवा दो उपवास की तपस्या और उसके पारणे में परिमित आचाम्ल अर्थात् अवमौदर्य । और उसके उत्तरार्ध में चार उपवास आदि की तपस्या और उसका पारण पूर्वार्ध की भांति किया जाता है। बारहवें वर्ष में कोटिसहित ( प्रतिदिन ) Jain Education International जो भिक्षु रोग से आक्रांत होने पर ऐसा अनुभव करता है. मैं यथासमय आवश्यक क्रियाएं करने के लिए इस शरीर को वहन करने में असमर्थ हूं, वह भिक्षु क्रमशः आहार को कम करे सूत्रकार ने समाधिमरण के लिए की जाने वाली संलेखना विधि का प्रतिपादन किया है । - उसका पहला अंग है आहार का संवर्तन -- अल्पीकरण । आचाम्ल करता है । बारहवें वर्ष में चार मास शेष रहते हैं तब संलेखना करने वाला तपस्वी वाक्यन्त्र को स्पष्ट रखने के लिए बार-बार तेल से कुल्ला करता है । इस द्वादश वर्ष में संलेखना के पश्चात् वह भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनीमरण अथवा प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करता है । (आचारांग नियुक्ति, गाया २६९-२७२) (भाग २, पृष्ठ २९४) के अनुसार बारहवे वर्ष में आहार की क्रमश: इस प्रकार कमी की जाती है। जिससे आहार और आयु एक साथ ही समाप्त हो । उस वर्ष के अंतिम चार महीनों में मुंह में तेल भर कर रखा जाता है। मुखयंत्र विसंवादी न हो-नमस्कार मंत्र आदि का उच्चारण करने में असमर्थ न हो, यह उसका प्रयोजन है । निशीष रत्नकरंड श्रावकाचार में आहार के अल्पीकरण का क्रम इस प्रकार है- पहले अन्न का परित्याग कर दुग्धपान का अभ्यास किया जाता है। तत्पश्चात् दुग्धपान का त्याग कर छाछ या गर्म जल पीने का अभ्यास For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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