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आचारांगभाष्यम्
भाष्यम् ९७-रागबद्धो मनुष्यः सत्यमपलपति, किन्तु राग से बन्धा हुआ मनुष्य सत्य का अपलाप करता है। किन्तु यो भिक्षुः सत्यमन्वेषयति, यथा-एकोऽहमस्मि, न मे जो भिक्षु सत्य का अन्वेषण करता है, जैसे-'मैं अकेला हूं। मेरा अस्ति कोऽपि, न चाहमपि कस्यचित, एवं स आत्मानं कोई भी नहीं है और मैं भी किसी का नहीं हूं।'-इस प्रकार वह एकाकिनमेव समभिजानीयात् ।
अपने आपको अकेला ही समझे। १८. लाघवियं आगममाणे ।
सं०-लापविकं आगच्छन् । वह लाघव का चिन्तन करता हुआ उपधि-विसर्जन का चिन्तन करे ।
भाष्यम् ९८ -एकत्वानुचिन्तनेन भिक्षः लाघवं इस एकत्व के अनुचिन्तन-अकेलेपन के चिन्तन से भिक्षु आगच्छति । अनेन संगजनिता भारानुभूतिरपह्नता लाघव को प्राप्त होता है। इससे आसक्तिजनित भारानुभूति दूर हो भवति ।
जाती है। ६६. तवे से अभिसमन्नागए भवइ ।
सं०-तपस्तस्य अभिसमन्वागतं भवति । एकत्व अनुप्रेक्षा करने वाले मुनि के तप होता है।
भाष्यम् ९९-एकत्वानुचिन्तनं 'अनुप्रेक्षा। सा च एकत्व का अनुचिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। उसका समावेश स्वाध्यायान्तर्वर्तित्वात् तपः । एवं एकत्वानुप्रेक्षां कुर्वतः स्वाध्याय के अन्तर्गत होता है, इसलिए वह तप है। इस प्रकार जो तस्य तप: अभिसमन्वागतं भवति ।
एकत्व की अनुप्रेक्षा करता है, उसके तप होता है।
१००. जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सम्वत्ताए समत्तमेव सममिजाणिया।
सं०-यदिदं भगवता प्रवेदितं, तदेव अभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया समत्वमेव समभिजानीयात् । भगवान ने जैसे एकत्व भावना का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, सर्वात्मना (संपूर्ण रूप से) समत्व का सेवन करे-किसी की अवज्ञा न करे।
भाष्यम् १००-स्पष्टम् ।।
स्पष्ट है। १०१. से भिक्ख वा भिक्खुणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेमाणे णो वामाओ हण्याओ दाहिणं
हणयं संचारेज्जा आसाएमाणे, दाहिणाओ वा हणुयाओ वामं हणुयं णो संचारेज्जा आसाएमाणे, से अणासायमाणे। सं०-स भिक्षुः वा भिक्षुणी वा अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा आहरन् नो वामायाः हनुकायाः दक्षिणां हनुका संचारयेत् आस्वादमानः, दक्षिणायाः हनुकायाः वामां हनुकां नो संचारयेत् आस्वादमानः, स अनास्वादमानः । भिक्षु या भिक्षुणी अशन, पान, खाद्य या स्वाध का सेवन करती हुई बाएं जबड़े से दाहिने जबड़े में न ले जाए, आस्वाद लेती हुई तथा दाएं जबड़े से बाएं जबड़े में न ले जाए, आस्वाद लेती हुई । वह अनास्वाद वृत्ति से आहार करे।
१०२. लाघवियं आगममाणे।
सं०-लाघविकं आगच्छन् । वह लाघव का चिन्तन करता हुआ स्वाद का विसर्जन करे ।
१०३. तवे से अभिसमन्नागए भवइ ।
सं०---तपस्तस्य अभिसमन्वागतं भवति । अस्वाव-लाघव वाले मुनि के स्वाद-अवमौदर्य तथा कायक्लेश तप होता है।
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