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अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० २. सूत्र २०-२५.
२१. इमस्स चैव जीवियरस, परिवरण माणण-पूरणाए, जाई- मरण- मो.नाए, दुक्खपविधाय [सं०] चैव जीविताय परिवदनमामन-पूजनाम, जाति मरण-मोचनाय दुःखप्रतिपातहेतुम् ।
वर्तमान जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए, दुःख - प्रतिकार के लिए ।
भाष्यम् २०.२१ – द्रष्टव्यम् - ९,१० सूत्रद्वयम् ।
देखें- ९,१० वां सूत्र ।
२२. से सयमेव पुढवि-सत्थं समारंभइ, अण्णेहि वा पुढवि-सत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा पुढवि-सत्थं समारंभंते समणुजाणइ । सं० स स्वयमेव पृथिवीर समारभते, अन्येव पृथिवीशस्त्रं समारम्भयति अन्यान् वा पृथिवीशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीते । कोई साधक स्वयं पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है या करने वालों का अनुमोदन करता है ।
२३. तं से अहियाए तं से अबोहीए।
भाष्यम् २२.२३ – निर्ग्रन्थप्रवचनप्रतिपन्नोऽपि गृहस्थः पृथ्वीकायिकजीवानां हिंसात: सर्वथा विरति कर्तुं न शक्नोति, किन्तु यो मुनिः भूत्वापि कृतकारितानुमतिभिः पृथ्वीकायिकजीवान् समारभते तत्तस्य अहिताय भवति, तत्तस्य अबोध्यं भवति - स चिरेणापि बोधि ज्ञानदर्शनचारित्रात्मिका' रत्नत्रयीं न लभते महदहितमेतत् । २४. से सेमाणे, आयाणीयं समुट्टाए ।
सं० तत् तस्य अहिताय, तत् तस्य अबोध्यै
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वह हिंसा उसके अहित के लिए होती है, वह हिंसा उसकी अबोधि के लिए होती है ।
भाष्यम् २४ - यो मुनिः पृथ्वीका विकजीवानां समा रम्भं तत्परिणामं वा सम्यक् संबुध्यते स आदानीयम्संयमं प्रति सम्यग् उत्यितो भवति ।
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आदानीयम् - मुनेः संयम एव आदानीयम् - ग्राह्य भवति तेन अनेकार्यकस्याप्यस्य पदस्यात्र 'संयम' एवार्थः संगच्छते ।
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सं०-- स तत् संबुध्यमानः आदानीयं समुत्थाय ।
वह उस हिंसा के परिणाम को समीचीन दृष्टि से समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है ।
भाष्यम् २५ - हिंसायाः परिणाममजानतः अहिंसायां प्रवृत्तिनं भवति । तेन संबोधरूपायोऽपि सूत्रकारेण
१. अंग सुत्ताणि १, ठाणं ३।१७६ ।
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निर्ग्रन्थ प्रवचन को स्वीकार कर लेने पर भी गृहस्थ पृथ्वीकाविक जीवों की हिंसा से सर्वथा विरत नहीं हो सकता। किन्तु जो व्यक्ति मुनि होकर भी कृत, कारित और अनुमति से पृथ्वीकायिक जीवों का समारम्भ करता है, वह उसके अहित के लिए होता है। वह उसकी अबोधि के लिए होता है । वह चिरकाल तक भी बोधि-- ज्ञान-दर्शनचारित्रात्मक रत्नत्रयीको प्राप्त नहीं होता, यह महान् अहित है ।
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मुनि पृथ्वीकायिक जीवों के समारम्भ और उसके परिणाम को सम्यक् प्रकार से जान लेता है, वह मादानीय अर्थात् संयम के प्रति सम्यक् रूप से उत्थित सावधान हो जाता है ।
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२५. सोच्चा खलु भगवओ अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसि णातं भवति एस खलु गंधे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए ।
सं० - श्रुत्वा खलु भगवतः अनगाराणां वा अन्तिके इहैकेषां ज्ञातं भवति - एषा खलु ग्रन्थः, एषा खलु मोहः, एषा खलु मारः, एषा खलु नरकः ।
भगवान् वा गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है यह (पृथ्वीकाधिक जीवों की हिंसा पन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है।
आदानीयः मुनि के लिए संयम ही आदानीय ग्राह्य है । आदानीय पद के अनेक अर्थ हैं, किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में उसका अर्थ 'संयम' ही संगत लगता है ।
हिंसा के परिणामों को नहीं जानने वाला व्यक्ति अहिंसा में प्रवृत्त नहीं हो सकता, इसलिए सूत्रकार ने संबोध का उपाय भी
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