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________________ आचारांगभाष्यम् दर्शितः । साक्षात भगवतोऽर्हत: समीपे अन्येषां मुनीनां प्रदर्शित किया है। साक्षात् अर्हत् भगवान से था अन्य मुनियों से सुन वा अन्तिके श्रुत्वा इतिज्ञातं भवति-एषा संबोधिरुदेति लेने पर यह ज्ञात होता है-यह संबोधि जागृत होती है कि यह हिंसा --एषा हिंसा प्राणिनश्चित्तं ग्रथ्नाति तेनास्ति ग्रन्थिः , प्राणी के चित्त को ग्रथित करती है, इसलिए ग्रंथि है। यह मूढता को एषा मूढतां नयति तेनास्ति मोहः, एषा मृत्यु नयति तेन प्राप्त कराती है, इसलिए मोह है । यह मृत्यु की ओर ले जाती है, मारः, एषा विपुलां वेदनां नयति तेन नरकः । इसलिए मार है तथा यह विपुल वेदना को उपलब्ध कराती है, इसलिए नरक है। २६. इच्चत्थं गढिए लोए। सं०-इत्यत्र ग्रथितो लोकः । फिर भी सुख-सुविधा में मूच्छित व्यक्ति पृथ्वीकायिक जीव-निकाय की हिंसा करता है। भाष्यम् २६-यदि हिंसा ग्रन्थिर्मोहो मारो नरकश्च यदि हिंसा ग्रन्थि, मोह, मार और नरक है तो हिंसा की विद्यते तदानीं को हिंस्यात् ? अस्य संशयस्य समाधानार्थं प्रवृत्ति करेगा ही कौन ? इस संशय के समाधान में सूत्रकार कहते हैंसुत्रकारो वक्ति-इत्यत्र' सुखसुविधायां मूच्छितो लोको सुख-सुविधा में मूच्छित प्राणी पृथ्वीकायिक और पृथ्वी के आश्रित जीवान हिनस्ति पृथ्वीकायिकान् तदाश्रितजीवांश्च, जीवों की हिंसा करता है । जैसेयथा२७. जमिणं विरूवरूवेहि सत्यहि पुढवि-कम्म-समारंभेणं पुढवि-सत्थं समारंभेमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिंसइ। सं०-यदिदं विरूपरूपः शस्त्रः पृथिवीकर्मसमारंभेण पृथिवीशस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वी सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है तथा वह केवल उन पृथ्वीकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है। भाष्यम् २७–द्रष्टव्यम्-१७ सूत्रम् । देखें-१७वां सूत्र । २८. से बेमि-अप्पेगे अंधमन्भे, अप्पेगे अंधमच्छे । सं०-तद् ब्रवीमि-अप्येकः अन्धमाभिन्द्याद्, अप्येकः अन्धमाच्छिद्यात् । मैं कहता हूं-पृथ्वीकायिक जीव जन्मना इन्द्रिय-विकल--अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयवहीन मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाले होते हैं। शस्त्र से भेदन-छेदन करने पर जैसे जन्मना इंद्रिय-विकल अंधे मनुष्य को कष्टानुभूति होती है, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीवों को होती है। भाष्यम २८-स्यादारेकः-कि पृथिव्यां सन्ति शंका हो सकती है क्या पृथ्वी में जीव हैं ? यद्यपि सूक्ष्म जीवाः ? सक्षमतत्त्वावबोधार्थं अतीन्द्रियज्ञानमेव प्रमाणं, तत्त्व के अवबोध के लिए अतीन्द्रियज्ञान ही प्रमाण होता है, फिर भी तथापि पूर्वाचार्यरत्र काश्चिद् युक्तयः सन्ति प्रदर्शिता:- पूर्वाचार्यों ने इस विषय में कुछ युक्तियां प्रदर्शित की हैं। वे कहते हैंसमानजातीयलतोदभेदादिकमर्शोमांसांकुरवत् चेतना- जैसे-मस्से में मांसांकुर फूटते हैं वैसे ही पर्वत में समानजातीय शिला चिह्नमस्त्येव । कुन्दकुन्दाचार्येण 'पंचास्तिकाये' का उद्भेद होता है । यह चेतना का ही चिह्न है । आचार्य कुन्दकुन्द ने एकेन्द्रियाणां जीवत्वनिश्चयार्थं एष तर्कः प्रस्तुत:-येन पंचास्तिकाय में एकेन्द्रिय प्राणियों का जीवत्व सिद्ध करने के लिए यह प्रकारेण अंडान्तीनानां गर्भस्थानां मूच्छितानां च तर्क प्रस्तुत किया है--जिस प्रकार अण्डे में अन्तर्लीन और गर्भ में स्थित जीवत्वं बुद्धिपूर्वकव्यापारादर्शनेऽपि निश्चीयते, तेन जीवों तथा मूच्छित प्राणियों में बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति नहीं देखी जाती, १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ २३ : इति एत्थं पुढविकाए माननपूजनाथं दुःखप्रतिघातहेतुं च गृद्धो-मूच्छितो आहारोवगरणविभूसणहेऊ मुच्छिओ गढिओ गिद्धोत्ति लोकः-प्राणिगणः। वा एगलैं। २. दशवकालिक हारिभद्रीया वृत्ति, पत्र १३९ : समान(ख) आचारांग वृत्ति, पत्र ३४ : इच्चत्यमित्यादि, जातीयांकुरोत्पत्युपलम्भात् देवदत्तमांसांकुरवत् । इत्येवमयं आहारभूषणोपकरणार्थ तथा परिवन्धम Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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