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अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० २. सूत्र २६-२८ प्रकारेणैव एकेन्द्रियाणां अपि जीवत्वं संसाधनीयम्। फिर भी उनमें जीवत्व का निश्चय किया जाता है। उसी प्रकार से ही एकेन्द्रियाणां अंडमध्यादिवर्तिपञ्चेन्द्रियाणां च बुद्धि- एक इन्द्रिय वाले जीवों का भी जोवत्व सिद्ध होता है । एक इन्द्रिय पूर्वकव्यापारादर्शनस्य समानत्वाद् ।'
वाले प्राणियों तथा अण्डे आदि के मध्यवर्ती स्थित पंचेन्द्रिय प्राणियों में बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति दृष्टिगोचर नहीं होती। इस बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति का
अदर्शन दोनों में समान है। इदानींतना भूवैज्ञानिका अपि मन्वते-शिलाखण्ड- आधुनिक भूवैज्ञानिक भी मानते हैं-शिलाखण्ड, पर्वत आदि पर्वतादयोऽपि हीयन्ते वर्धन्ते च । तेषु क्लान्तिश्चया- में भी हानि और वृद्धि होती है । उनमें क्लान्ति, चयापचय और पचयो मृत्युश्च ---एतानि त्रीण्यपि चैतन्यलक्षणानि मृत्यु-चैतन्य के ये तीनों लक्षण पाए जाते हैं । विद्यन्ते।
अस्ति तेषु अव्यक्तचेतना, अतस्ते व्यक्तचैतन्यप्राणि- उनमें चेतना अव्यक्त होती है, इसलिए उनको व्यक्त चेतना वन न सन्ति सहजबोध्याः । भगवता महावीरेण वाले प्राणी की तरह सहजतया जाना नहीं जा सकता। भगवान पृथिव्यां न केवलं चैतन्यमेव प्रतिपादितं किन्तु तद्विषये महावीर ने पृथ्वी में केवल चेतना का ही प्रतिपादन नहीं किया है,. अनेकानि तथ्यान्यपि प्रकटितानि
किन्तु इस विषय में अनेक तथ्य भी प्रकट किये हैं(१) श्वासोच्छवासः-गौतमेन पृष्टं-'भगवन् ! (१) श्वासोच्छ्वास-गौतम ने पूछा-भगवन् ! पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिकजीवानां उच्छ्वासनिःश्वासं वयं न पश्यामो जीवों का उच्छ्वास-नि.श्वास न हमें दीखता है और न हम उस विषय न च तविषये जानीमो वा। किं ते उच्छ्वसन्ति में जानते हैं । क्या वे उच्छ्वास-निःश्वास की क्रिया करते हैं ? निःश्वसन्ति वा?
भगवता प्रोक्तं-गौतम ! ते नियाघातेन षड्दिशा- भगवान् ने कहा- गौतम ! वे व्याघात न होने पर छहों तोऽपि उच्छवसन्ति निःश्वसन्ति, व्याघातं प्रतीत्य स्यात् दिशाओं से उच्छ्वसन-निःश्वसन करते हैं तथा व्याघात होने पर तीन त्रिदिशः स्याच्चतुर्दिशः स्यात् पञ्चदिशः ।'
या चार या पांच दिशाओं से । (२) करणम्-गौतमेन पृष्टं--भगवन् ! एकेन्द्रिय- (२) करण- गौतम ने पूछा--भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवों के जीवानां कति करणानि भवन्ति ?
कितने करण होते है ? भगवता प्रोक्तं-तेषां द्विविधं करणं भवति- भगवान् ने कहा- उनके दो प्रकार का करण होता हैकायकरणं कर्मकरणञ्च ।
कायकरण और कर्मकरण ।। क्रियन्ते प्रवृत्तयः संवेदनानि ज्ञानानि वा जिससे प्रवृत्ति, संवेदन और ज्ञान संपादित होता है, वह करण येन तत करणम । तच्च क्वचिच्छरीरं, क्वचित् कर्म, है। कहीं करण का प्रयोग शरीर के अर्थ में, कहीं कर्म, कहीं इन्द्रियां क्वचिदिन्द्रियाणि, क्वचिदतीन्द्रियज्ञानस्य निमित्तभूतानि कहीं अतीन्द्रिय ज्ञान के निमित्तभूत चैतन्य-केन्द्र और कहीं संवेदन-केन्द्र चैतन्यकेन्द्राणि, क्वचिच्च संवेदनकेन्द्राणि ।
के अर्थ में होता है । (३) वेदना-गौतमेन पृष्टं--भगवन् ! पृथ्वी- (३) वेदना--गौतम ने पूछा-भगवन् ! वया पृथ्वीकायिक कायिकजीवाः किं करणतो वेदनां वेदयन्ति अथवा जीव करण से वेदना का वेदन करते हैं या अकरण से ? अकरणतः ?
१.पंचास्तिकाय, गाथा ११३ :
अंडसु पवड्ढेता गम्भत्था माणुसा य मुच्छगया।
जारिसया तारिसया जीवा एगेंदिया णेया॥ २. अंगसुत्ताणि २, भगवई २।२,५: जे इमे भंते ! बेइंदिया
तेइंदिया चरिदिया पंचविया जीवा एएसि णं आणामं वा पाणामं वा उस्सासं वा निस्सासं वा जाणामो पासामो। जे इमे पुढवीकाइया जाव वणफ्फइकाइया-एगिदिया जीवा एएसि णं आणाम वा पाणामं वा उस्सासं बा
निस्सासं वा नयाणामो न पासामो। एएणं भंते ! जीवा आणमंति वा ? पाणमंति वा? ऊससंति वा ? नीससंति वा..."हंता गोयमा ! एए वि णं जीवा आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा। एएणं भंते ! जीवा कइदिसं आणमंति वा? पाणमंति वा ? ऊससंति वा? नीससंति वा? गोयमा ! निव्वाधाएणं छदिसि,
वाघायं पडुच्च सिय तिदिसि सिय चउदिसि सिय पंचदिसि । ३. अंगसुत्ताणि २, भगवई ६७ : एगिदियाणं दुविहे-कायकरणे य कम्मकरणे य ।
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