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________________ अ० ८. विमोक्ष, उ० ८. गाथा ७-११ १०. पाणा देहं विहिंसंति, ठाणाओ ण विउम्ममे आसवेहि विविलेहि तिष्यमाणेऽहिवासए । 1 [सं० प्राणाः देह विहिंसन्ति स्थानात् न व्युद्धमेत् । आधर्वः विविक्ते, तेपमानः अधिसत प्राणी मेरे शरीर का विघात कर रहे हैं, यह सोचकर भिक्षु अपने स्थान से विचलित न हो। नाना प्रकार के कष्टों या पीडाओं से पीडित होने पर वह उन्हें सहन करे । भाष्यम् १० एते प्राणिनः मम देहमेव विहिंसन्ति, न पुनः ज्ञानादीनां उपरोधं कुर्वन्ति इत्यालम्बनं कृत्वा स अविचल स्तिष्ठेत् । स्थानं द्विविधं द्रव्वस्थानं भावस्थानं च तत्र द्रव्यस्थानं आवासभूमिः, भावस्थानं भक्तपरिज्ञा । स स्थानयादपि विचलितो न भवति । आसवः पीडा, कष्टं छिद्रं वा । तिप्पमाणे – पीडघमानः पूर्णे वृत्तौ च । तृप्यमान इति व्याख्यातमस्ति ।* ११. धेहि विवि - भाव्यम् ११ प्रत्यो द्विविधः द्रव्यग्रन्थः शरीरवस्त्रादिः, भावग्रन्थः रागादिः । ग्रन्येषु विविक्तेषु त्यक्तेषु भिक्षुः आयुःकालस्य पारं प्राप्नोति, प्रतिज्ञा पारमपि च।' आज-कालस्स पारए सं० ग्रम्ये विविक्तै, आयुःकालस्य पारगः पग्वहियतरगं चेयं दवियस्स वियाणतो ॥ प्रगृहीततरकं चैतत् द्रव्यस्य विजानतः । ग्रन्थ (शरीर) की अंतिम अवस्था में वह आयुष्य काल का पार पा जाता है। यह इंगिनीमरण अनशन भक्त - प्रत्याख्यान की अपेक्षा उच्चतर है । इसे अतिशय ज्ञानी और संयमी भिक्षु ही स्वीकार करते हैं । भक्त इदानी इंगिनी मरणमुच्यते - एतद् प्रत्याख्यानापेक्षया प्रगृहीततरं प्रशस्यतरं दुःखतरं च विद्यते । द्रव्य :- उपशान्तरागद्वेषो भिक्षुः एतत् स्वीकरोति । स च विज्ञाता भवेत् नवपूर्वधरः ततः , १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २९० २९१ : इत्थ इमं आलंबणं कार्य अहियासेयमा तेखि अंतराइयं भविस्वति एते तु पाणा मम देहमेव विहिति न पुन नाणादिवरोह करेति ह ? अण्णी जीवो अच्णं सरीरमितिका च-अन्नं इमं सरीरं अन्नोऽहं अम्ने संबंधिबंधवा पाणा देहं भक्वेंति मया णिसमिति एत्थ किं मम अवरज्झति ? Jain Education International भणियं जति २. () (पृष्ठ २९१) 'अपसव्य' इति पाठो विद्यते-'अवसहि विचितेहि अवसवंतौति अवसच्या विकसाया हिंसादयो य विचित्ता -मुत्ता, अहवा विरूवप्पिभावो, विचित्तहि अवसेहि अमिलितेहि । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २६५ आधवैः प्राणाति ३६६ ये प्राणी मेरे शरीर का ही विषात कर रहे हैं, किन्तु ज्ञान आदि का उपघात तो नहीं करते, यह आलंबन लेकर वह मुनि अविचल रहे । स्थान के दो प्रकार हैं- द्रव्यस्थान और भावस्थान । द्रव्यस्थान है— आवासभूमी तथा भावस्थान है—भक्तपरिज्ञा । वह दोनों प्रकार के स्थानों से विचलित नहीं होता। आव का अर्थ है पीड़ा, कष्ट अथवा छिद्र 'तिष्यमाय' का अर्थ है- पीड़ित होता - । हुआ। चूर्णि और वृत्ति में 'तिप्पमाण' की व्याख्या 'तृप्त होता हुआ' की है। ग्रन्थ दो प्रकार का होता है- द्रव्यग्रन्थ और भावग्रन्थ । द्रव्यपन्थ है- शरीर वस्त्र आदि । भावग्रन्थ है- राग आदि। प्रत्यों को छोड़ देने पर वह भिक्षु आयुष्य काल का पार पा लेता है तथा प्रतिज्ञा का पार भी पा लेता है । अब इंगिनीमरण अनशन के विषय में कहा जा रहा है - यह अनशन भक्तप्रत्याख्यान अनशन की अपेक्षा उच्चतर प्रशस्यतर और कष्टतर होता है । द्रव्य अर्थात् राग-द्वेष को उपशान्त करने वाला भिक्षु इसे स्वीकार करता है। वह विज्ञाता हो अर्थात् नौ पूर्वो का ज्ञाता पाताविनिविषयकथावादिभिर्वा ३. आप्टे, आस्रवः - Pain, distress. ४. (क) आचारांग चूर्णि पृष्ठ २९१ : तिप्पमाण इति अमएव सिच्यमाणो बृहत्पिवासिएहि परीसहउसमे मिलाया छिन्नमाणे या देहिति तो बसे पवि कायावायामहि तिहि तप्यति । " (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २६५ तं भक्ष्यमाणोऽप्यमृतादिना तृप्यमाण इव सम्यक् तत्कृतां वेदनां तैस्तप्यमानो वा । ५. विस्तार के लिए देखें उत्तरज्मयणाणि ३०।१२-१३ के टिप्पण | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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