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________________ ३६८ चूर्णिपरम्परा - 'सिक्खा णाम आसेवणा, जं तवमिति जं तेण अवसितं तदेव सिक्खिज्ज, तक्खणादेव अलोइयपडिक्कंतो बमा अरोविता मतं पवेज्जा ।" ७. गामे वा अदुवा रणे, थंडिलं पडिलेहिया । अव्यपाणं तु विष्णाय तणाई संवरे मुणी ॥ सं० ग्रामे वा अथवा भरव्ये स्थण्डिलं प्रतिलिख्य अस्पप्राणं तु विज्ञाय तृणानि संस्तरेत् मुनिः । 1 1 ग्राम में अथवा अरण्य में जीव-जन्तु रहित स्थण्डिल - स्थान को देखकर मुनि घास का बिछौना करे । भाष्यम् ७ - इदानीं भक्तप्रत्याख्यानस्य विधि: निर्दिश्यते । तत्र प्रथमं स्थानविशुद्धि: - ग्रामः, अरण्यं, उद्यानं, गिरिगुहादयो वा । स भक्तप्रत्याख्यानस्थाने प्रातिचरिक भिक्षुभिः सह व्रजति आशुकारितायां एकाकी चापि स्थण्डिलप्रतिलेखनाविषये एषा पूर्णि। परम्परा ' जत्थ य भत्तं पच्चक्खाति जत्थवि थंडिले सरीरगं परिविज्जिरसति तं पि जति गीयत्था सेहा व ताहे तंपि सयमेव पडिलेहेति, एरिसे पंडिले मते परिविज्जाह पारिट्टा या विहिं च लेखि कहेति । " - भाष्यम् ८ - स्पृष्ट:- त्रिविधे आहारे प्रत्याख्याते क्षुधया स्पृष्टः, चतुविधे वा प्रत्याख्याते पिपासयापि स्पृष्ट: । अतिवेलम् – मर्यादाया अतिक्रमणम् । * मनुष्ये विद्यते अपरिमिता शक्तिः । जागरणावस्थायां मनुष्यः सर्वमधिसोढुं शक्नोति वारं वारं सहनशक्तेः विकासस्य निर्देशः क्रियते । आचारांगभाष्यम् पदानुगत चूर्णि की परम्परा यह है— शिक्षा का यहां अर्थ है-— सेवन शिक्षा । जिस तप का उसने अध्यवसाय किया है, उसी का आसेवन करे । उसी क्षण आलोचना और प्रतिक्रमण कर व्रतों का पुनः आरोपण कर आहार का प्रत्याख्यान कर दे । ८. अणाहारो तुअट्टेज्जा, पुट्ठो तत्थहियासए । णातिवेलं उवचरे, माणुस्सेहि वि पुट्ठओ ॥ सं०-- अनाहारः त्वक्वर्तेत स्पृष्टः तत्र अधिसहेत । नातिवेलमुपचरेत्, मानुषैरपि स्पृष्टकः । वह आहार का प्रत्याख्यान कर शान्त भाव से लेट जाए। उस स्थिति में भूख, प्यास या अन्य परीषहों से स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन करे । मनुष्य-कृत अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गों से स्पृष्ट होने पर भी मर्यादा का अतिक्रमण न करे । तस्याः इति , १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २८९ । २. वही, पृष्ठ २८९ । ३. वही, पृष्ठ २९० : पुट्ठो नाम दिगिछाते, तिविहे पच्चक्खाए, तिविहे विहे वा पञ्चखाया, विवासितो तत्बहियास Jain Education International , अब भक्तप्रत्याख्यान अनशन की विधि बताई जा रही है । सबसे पहले स्थान-विशुद्धि की जाती है। मुनि ग्राम, अरण्य, उद्यान, गिरिगुफा आदि स्थान का चुनाव करता है। वह भक्तप्रत्याख्यान अनशन करने के स्थान में प्रातिचरिक भिक्षुओं के साथ जाता है। जल्दी हो तो वह अकेला भी चला जाता है। स्थंडिल की प्रतिलेखना के विषय में पूर्णि की परम्परा यह है— मुनि जहां भक्तप्रत्याख्यान अनशन प्रारंभ करता है और जिस स्थंडिल में मृत शरीर का परिष्ठापन किया जाएगा, उस स्थान का प्रतिलेखन, यदि शिष्य अगीतार्थ हो तो स्वयं करे वह उनसे कहे मरने पर ऐसे स्थान में शव का परिष्ठापन करना। फिर वह उन्हें परिष्ठापन की विधि बताता है । स्पृष्ट का तात्पर्य है— तीनों आहार का प्रत्याख्यान करने पर भूख से स्पृष्ट तथा चारों आहार का प्रत्याख्यान करने पर पिपासा से स्पृष्ट | अतिवेलं का अर्थ है - मर्यादा का अतिक्रमण । भी ६. संसपा य जे पाणा, जे य उड्ढमहेचरा । भुंजंति मंस सोणियं, ण छणे ण पमज्जए ॥ सं०-- संसर्पकाः च ये प्राणाः, ये च ऊर्ध्वमधश्चराः । भुञ्जते मांसशोणितं, न क्षणुयात् न प्रमार्जयेत् । संपर्ण करने वाली चींटी आदि, आकाशचारी गीध आदि तथा बिलवासी सर्प आदि शरीर का मांस खाएं, मच्छर आदि रक्त पीएं, तब भी उनकी हिंसा न करे और रजोहरण से उनका प्रमार्जन (निवारण) न करे । माध्यम ९- स्पष्टमेव । स्पष्ट है । मनुष्य में अपरिमित शक्ति है। उसका जागरण होने पर मनुष्य सब कुछ सहन करने में समर्थ हो जाता है। इसलिए सहनशक्ति के विकास का बार-बार निर्देश किया जाता है । एवं अग्नेहिवि परीसहेहि पुट्टो अहियासए । ४. वही, पृष्ठ २९० वेत्ति वा सीमत्ति वा मेरत्ति वा एगट्ठा, दव्यवेला समुहस्त, भायवेला परिसपाली। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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