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अ०८. विमोक्ष, उ०८. गाथा २-६
३९७ ४. जीवियं णामिकखेज्जा, मरणं णोवि पत्थए । वहतोवि ण सज्जेज्जा, जीविते मरणे तहा॥ सं०-जीवितं नाभिकांक्षेत्, मरणं नोऽपि प्रार्थयेत् । द्वयोरपि न सजेत्, जीविते मरणे तथा। वह ग्लान अवस्था में जीवन की आकांक्षा न करे, मरण की इच्छा न करे । वह जीवन और मरण-बोनों में भी आसक्त न बने। भाष्यम् ४-स्पष्टमेव ।
स्पष्ट है। ५. मज्झत्थो णिज्जरापेही, समाहिमणपालए। अंतो बहिं विउसिज्ज, अज्झत्थं सुद्धमेसए ।। सं०-मध्यस्थः निर्जराप्रेक्षी, समाधिमनुपालयेत् । अन्तो बहिः व्युत्सृज्य, अध्यात्म शुद्धमेषयेत् । वह मध्यस्थ और निर्जरादर्शी भिक्षु समाधि का अनुपालन करे । राग-द्वेष आदि आन्तरिक और शरीर आदि बाह्य वस्तुओं का विसर्जन कर शुद्ध अध्यात्म की एषणा करे।
भाष्यम् ५-अनशनकाले भिक्षुः अनुकूलप्रतिकूल- अनशनकाल में भिक्षु अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में परिस्थिती मध्यस्थ: स्यात् । स न सुखदुःखादिकं पश्येत् । मध्यस्थ रहे । वह सुख-दुःख आदि को न देखे। वह निर्जरा का ही स निर्जरामेव अनुध्यायेत् । निर्जराप्रेक्षिणः समाधिः अनुध्यान करे, उस पर ही एकाग्र रहे। जो निर्जराप्रेक्षी होता है, उसके अनुपालितो भवति । यदा आन्तरिकः बाह्यश्च व्युत्सर्गो समाधि अनुपालित होती है। जब आंतरिक और बाह्य व्युत्सर्ग जायते तदा विशुद्धस्य अध्यात्ममेषणा भवति ।' होता है तब विशुद्ध अध्यात्म की एषणा होती है। ६. जं किंचुवक्कम जाणे, आउक्खेमस्स अप्पणो । तस्सेव अंतरद्धाए, खिप्पं सिक्खेज्ज पंडिए॥
सं०-यं कञ्चिदुपक्रम जानीत, आयुःक्षेमस्यात्मनः । तस्यैवान्तराध्वनि, क्षिप्रं शिक्षेत पण्डितः ।। अबाध रूप से चल रहे अपने संलेखनाकालीन जीवन में आकस्मिक बाधा जान पड़े, तो उस संलेखना-काल के मध्य में ही पण्डित भिक्षु शीघ्र आहार का प्रत्याख्यान करे।
भाष्यम् ६–आयुषः क्षेमं सम्यक् पालनम् । उपक्रमः'- आयुष्य का क्षेम अर्थात् उसका सम्यग् पालन, अबाध पालन । आयुष्यविघातकं वस्तु । स पण्डितो भिक्षुः आत्मनः उपक्रम का अर्थ है-आयुष्य का विघात करने वाली वस्तु । वह पंडित आयुःक्षेमस्य उपक्रम जानीयात्, तदानीं संलेखनाया भिक्षु अपने आयुःक्षेम के उपक्रम को जान ले तो संलेखना के मध्यकाल अन्तःकाले एव क्षिप्रं शिक्षेत । अत्र शिक्षापदानुगता में ही शीघ्र शिक्षा प्राप्त करे आहार का प्रत्याख्यान करे। 'शिक्षा' १. अनशनकाल में भिक्षु को जीवन, सुख आदि अनुकूल
भीतर की गहराई में झांकता है, उसे शुद्ध अध्यात्मपरिणामों और मृत्यु, दुःख आदि प्रतिकूल परिणामों में सम
आत्मा के निरावरण चैतन्यरूप का दर्शन होता है। रहना चाहिए। सूत्रकार ने 'मध्यस्थ' शब्द के द्वारा इसका २. आचारांग वृत्ति, पत्र २६४ : उपक्रमणमुपक्रम-उपायस्तं निर्देश दिया है।
यं कञ्चन जानीत, कस्योपक्रमः ? --'आयुःक्षेमस्य' समभाव का आलम्बन है-निर्जरा। अनशन करने आयुषः क्षेम-सम्यक्पालनं तस्य, कस्य सम्बन्धि तदायुः ? वाले भिक्षु की दृष्टि इस बात पर लगी रहती है कि उसके
आत्मनः, एतदुक्तं भवति-आत्मायुषो यं क्षेमप्रतिपालनोअधिक से अधिक निर्जरा -कर्मक्षय हो। जो निर्जरादर्शी
पायं जानीत तं क्षिप्रमेव शिक्षेत्-व्यापारयेत् पण्डितोनहीं होता, वह मध्यस्थ भी नहीं रह सकता।
बुद्धिमान्, 'तस्यैव' संलेखनाकालस्य 'अन्तरद्धाए' त्ति अन्तर___ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य-ये पांच 'समाधि' . काले संलिखित एव देहे देही यदि कश्चित् वातादिक्षोभात् के अंग हैं। अनशन करने वाले को इस पंचांग-समाधि का
आतङ्क आशुजीवितापहारी स्यात् ततः समाधिमरणभिअनुभव करना चाहिए।
काङ्क्षन् तदुपशमोपायमेषणीयविधिनाऽभ्यङ्गादिकं विदध्यात् अध्यात्म की एषणा का पहला चरण है-शरीर की
पुनरपि संलिखेत्, यदिवाऽऽत्मनः आयुःक्षेमस्य-जीवितस्य प्रवृत्ति का और उसके ममत्व का विसर्जन । इस विसर्जन यत्किमप्युपक्रमणं -- आयुःपुद्गलानां संवर्तनं समुपस्थितं के बाद साधक भीतर की ओर झांकता है तो भीतर में
तज्जानीत, ततस्तस्यैव संलेखनाकालस्य मध्येऽव्याकुलितराग-द्वेष की प्रन्थियां मिलती हैं। वहां शुद्ध अध्यात्म दीख
मतिः क्षिप्रमेव भक्तपरिज्ञादिकं शिक्षेत-आसेवेत नहीं पड़ता। जो साधक उन ग्रन्थियों को खोलकर फिर पण्डितो-बुद्धिमानिति ।'
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