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आचारांगभाष्यम् अतिशयज्ञानी वा।'
अथवा उससे भी अधिक अतिशय ज्ञानी हो। भक्तप्रत्याख्याने यत् संलेखनातणसंस्तारादिक भक्तप्रत्याख्यान अनशन में जो संलेखना, तृण-संस्तारक आदि अभिहितं तत् सर्वमिहापि अवसेयम् ।
विधि का कथन है, वह इस अनशन में भी जान लेना चाहिए । १२. अयं से अवरे धम्मे, णायपुत्तेण साहिए । आयवज्ज पडीयार, विजहिज्जा तिहा तिहा।
सं०-अयं तस्याऽपरः धर्मः, ज्ञातपुत्रेण कथितः' । आत्मवर्ज प्रतिचारं, विजह्मात् त्रिधा त्रिधा। भगवान महावीर ने इंगिनीमरण अनशन का आचार-धर्म भक्त-प्रत्याख्यान से भिन्न प्रतिपादित किया है। इस अनशन में भिक्षु अपने काय-व्यापार के लिए स्वयं के अतिरिक्त मनसा, वाचा, कर्मणा दूसरे का सहारा न ले, न लिवाए और न लेने वाले का अनुमोदन करे।
भाष्यम् १२–'से' इति तस्य इंगिनीमरणस्य अपरः ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने उस इंगिनीमरण अनशन का धर्मः ज्ञातपुत्रेण साधितः कथितः । अस्मिन्निङ्गिनीमरणे आचार-धर्म भक्तप्रत्याख्यान से भिन्न प्रतिपादित किया है । इस इंगिनीचतुविधाहारः प्रत्याख्यातो भवति । अस्य अनशनस्य मरण अनशन में चारों प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान होता है। इस प्रतिपत्ता आत्मवर्ज प्रतिचारं-कायव्यापार विधा- अनशन को स्वीकार करने वाला मुनि स्वयं प्रतिचार-उठना, बैठना मनसा वाचा कर्मणा विजहाति । स च आकुञ्चनं, या चंक्रमण करना-करता है, किन्तु मन, वचन और काया से दूसरे के प्रसारणं, नियते स्थाने गमनागमनं स्वयमेव करोति, न सहयोग का त्याग करता है। वह आकुंचन, प्रसारण या सीमित च कस्यापि प्रतिचारकस्य साहाय्यमभिलषति । स्थान में गमन-आगमन स्वयं ही करता है, दूसरे किसी भी प्रतिचारक
के सहयोग की अभिलाषा नहीं करता। १३. हरिएसु ण णिवज्जेज्जा, थंडिलं मुणिआ सए । विउसिज्ज अणाहारो, पुट्टो तत्थहियासए ।
सं०- हरितेषु न निपद्येत, स्थण्डिलं ज्ञात्वा शयीत । व्युत्सृज्य अनाहारः, स्पृष्टः तत्राधिसहेत । वह हरियाली पर न सोए । स्थण्डिल-जीव-जन्तु-रहित स्थान को देखकर वहां सोए। वह अनाहार भिक्षु शरीर आदि का विसर्जन
कर, भूख प्यास या अन्य परीषहों से स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन करे। १४. इंदिएहि गिलायंते, समियं साहरे मुणी। तहावि से अगरिहे, अचले जे समाहिए।
सं०-इन्द्रियः ग्लायन्, समितं संहरेत् मुनिः । तथापि स अगहः, अचलो यः समाहितः । इन्द्रियों से ग्लान (श्रान्त) होने पर वह मुनि मात्रा-सहित हाथ-पैर आदि का संकोच-परिवर्तन करे। जो अचल और समाहित होता है, वह ऐसा करता हुआ धर्म का अतिक्रमण नहीं करता।
भाष्यम् १३-१४-स्पष्टमेव ।।
स्पष्ट है।
१५. अभिकम्मे पडिक्कमे, संकुचए पसारए । काय-साहारणट्टाए, एत्थं वावि अचेयणे ।
सं०-अभिक्रामेत् प्रतिक्रामेत् , संकोचयेत् प्रसारयेत् । कायसंधारणार्थ, अत्र वापि अचेतनः । वह बैठा या लेटा हुआ श्रान्त हो जाए तब शरीर-संधारण के लिए गमन और आगमन करे, हाथ, पैर आदि को सिकोड़े और फैलाए। यदि शक्ति हो तो इस अनशन में भी अचेतन की भांति निश्चेष्ट लेटा रहे।
भाष्यम् १५-अचेतनः --क्रियारहितः । .
अचेतन का अर्थ है-क्रियारहित ।
१. चूणा (पृष्ठ २९१) 'सुयाहितो' इति पाठो व्याख्यातोऽस्ति'दवियस्स वियाणओं' रागदोसरहियस्स दवियस्स सुठ आवितो वा आहिते सुवाहितो।
वृत्तौ (पत्र २६५) 'वियाणओ' इति पाठो व्याख्यातोस्ति'विजानतो' गीतार्थस्य, जघन्यतोऽपि नवपूर्वविशारदस्य
__ भवति, नान्यस्येति ।
२. हेमचन्द्र, प्राकृत व्याकरण, ४०२ : कथेवज्जर-पज्जरोप्पाल• पिसुण-संघ-बोल्ल-चव-जम्प-सीस-साहाः। .३. आचारांग चूणि, पृष्ठ २९२ : 'एत्थं वावि अचेयणेत्ति' ' इत्यं इंगिणीमरणे वा विमासा पाओवगमणेसु कटुमिव
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