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अ०८. विमोक्ष, उ०८. गाथा १२-२० १६. परक्कमे परिकिलंते, अदुवा चिट्टे अहायते । ठाणेण परिकिलंते, णिसिएज्जा य अंतसो॥
सं०-पराक्रमेत परिक्लाम्यन्, अथवा तिष्ठेत् यथायतः । स्थानेन परिक्लाम्यन्, निषीदेत् च अन्तशः । वह लेटा-लेटा श्रान्त हो जाए, तो चंक्रमण करे अथवा सीधा खड़ा हो जाए। खड़ा-खड़ा श्रान्त हो जाए, तो अन्त में बैठ जाए।
भाष्यम् १६ –'णिसिएज्जा' अत्र निषद्याविषये चूणि- निषीदेत् अर्थात् बैठ जाए। यहां निषद्या के विषय में चूणि परम्परा-णिसनोवि जया पलियंकेण वा अद्धपलियंकेण वा की परम्परा यह है -पर्यकासन, अर्द्धपयंकासन, उकडूआसन में बैठा उक्कुडयासणो वा परितंमति णिविज्जति, उत्ताणतो वा हुआ मुनि जब थक जाए तब उत्तानासन अथवा पार्श्वशयन अथवा पासिल्लितो वा उड्ढायतो वा लगंडसायी वा जहासमाहीते ऊर्ध्व-आयत अथवा लगंडशयन-जैसे समाधि उपजे वैसे आसन का सम्वत्थवि ।'
सर्वत्र प्रयोग करे। १७. आसीणे णेलिसं मरणं, इंदियाणि समीरए । कोलावासं समासज्ज, वितहं पाउरेसए।
सं०-आसीनः अनीदृशं मरणं, इन्द्रियाणि समीरयेत् । कोलावासं समासाद्य , वितथं प्रादुरेषयेत् । इस असाधारण मरण की उपासना करता हुआ वह इंद्रियों का सम्यग् प्रयोग करे-इष्ट और अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष न करे।
घुन और दीमक वाले काष्ठ-स्तंभ का सहारा न ले । घुन आदि से रहित और निश्छिद्र काष्ठ स्तंभ की एषणा करे । १८. जओ वज्जं समुप्पज्जे, ण तत्य अवलंबए । ततो उक्कसे अप्पाणं, सब्वे फासेहियासए ॥
सं० ---यतो वयं समुत्पद्येत, न तत्र अवलम्बेत । ततः उत्कृषेद् आत्मानं, सर्वान् स्पर्शान् अधिसहेत । जिसका सहारा लेने से वयं (कर्म) उत्पन्न हो, उसका सहारा न ले। उससे अपने-आपको दूर रखे। सब स्पर्शों को सहन करे।
भाष्यम् १७,१८ - स्पष्टमेव ।
स्पष्ट है। १६. अयं चायततरे सिया, जो एवं अणपालए। सव्वगायणिरोधेवि, ठाणातो ण विउब्भमे ॥
सं०-अयं च आयततरः स्यात्, यः एवं अनुपालयेत् । सर्वगात्रनिरोधेऽपि स्थानात् न व्युभ्रूमेत् । यह प्रायोपगमन अनशन की मरणविधि इंगिनीमरण से महत्तर है । जो उक्त विधि से इसका अनुपालन करता है, वह समूचे शरीर के अकड जाने पर भी अपने स्थान से चलित न हो।
भाष्यम् १९-इदमनशनं इङ्गिनीमरणापेक्षया यह प्रायोपगमन अनशन इंगिनीमरण अनशन की अपेक्षा महत्तर आयततरं-महत्तरं विद्यते। ततोऽस्मिन् स्थानात् विचलनं है। इसलिए प्रायोपगमन अनशन में स्थान से विचलन का प्रतिषेध प्रतिषिद्धमस्ति। निश्चेष्टं शयानस्य सकलशरीरस्य किया गया है। निश्चेष्ट अवस्था में सोने पर संपूर्ण शरीर में अकडन निरोधो जायते इति स्वाभाविकं, तथापि प्रायोपगमन- आ जाती है, यह स्वाभाविक है। फिर भी प्रायोपगमन अनशन को मनशनं स्वीकुर्वाणस्य दृढतरं मनोबलं भवति, प्रबला च स्वीकार करने वाले भिक्षु का मनोबल दृढ़तर होता है और उसकी सहनशक्तिः । तेन स परिपूर्ण कायोत्सर्ममनुपालयितुं सहनशक्ति प्रबल होती है। इसलिए वह परिपूर्ण कायोत्सर्ग का शक्नोति ।
___ अनुपालन करने में समर्थ हो जाता है। २०. अयं से उत्तमे धम्मे, पुव्वाणस्स पग्गहे । अचिरं पडिलेहित्ता, विहरे चिट्र माहणे ।।
सं०-अयं स उत्तमो धर्मः, पूर्वस्थानस्य प्रग्रहः । अचिरं प्रतिलिख्य, विहरेत तिष्ठेत् माहनः । यह मरणविधि उत्तम धर्म है। इसमें पूर्व स्थान-इंगिनीमरण के आचार से विशिष्ट आचार होता है । प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करने वाला भिक्षु जीव-जन्तु-रहित स्थान को देखकर वहां निश्चेष्ट होकर रहे।
भाष्यम २०-इदं प्रायोपगमनं उत्तमो धर्म:-प्रधानो यह प्रायोपगमन अनशन उत्तम धर्म अर्थात् प्रधान मरणविधि मरणविधिः विद्यते। अस्मिन् पूर्वस्थानस्य-इंगिनी- है। इसमें इंगिनीमरण अनशन के आचार से विशिष्ट आचार है । जैसे अचेयणा सर्वक्रियारहिते चिट्ठति एवं एथवि इंगिनीमरणे
रहितो चिट्ठति, अचेयणेण तुल्लो अचेयणवत् । जति से सामत्थं अस्थि तो अचेयणो, अचेयणोव्व किरिया- १. आचारांग चूणि, पृष्ठ २९३ ।
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