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आचारांगभाष्यम्
मरणस्य आचारात प्रग्रहः--विशिष्ट: आचारो विद्यते। इंगिनीमरण अनशन को स्वीकार करनेवाला नियत स्थान में गमनयथा इंगिनीमरणाख्यस्य अनशनस्य स्वीकर्ता नियतप्रदेशे आगमन करता है तथा स्वयं परिकर्म-शुश्रूषा भी करता है। जो गमनागमनं करोति, स्वयं परिकर्म--शुश्रूषामपि करोति। प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करता है वह जिस आसन में अनशन यः प्रायोपगमनमनशनं स्वीकरोति स यस्मिन् आसने ग्रहण करता है, उसी आसन में निश्चल रहता है और स्वयं भी अनशनं प्रतिपद्यते तस्मिन्नेव निश्चलो भवति, स्वयमपि परिकर्म नहीं करता। परिकर्म न विधत्ते।
स माहनो भिक्षुः अचिरं'-समुचितं स्थानं प्रति- वह अहिंसक भिक्षु अचिर-समुचित स्थान का प्रतिलेखन कर लिख्य तत्र विहरेत्, तिष्ठेत् ।
विहरण करे, वहां रहे ।
२१. अचित्तं तु समासज्ज, ठावए तत्थ अप्पगं । वोसिरे सव्वसो कायं, ण मे देहे परीसहा ।।
सं०- अचित्तं तु समासाद्य , स्थापयेत् तत्र आत्मकम् । व्युत्सृजेत् सर्वश: कायं, न मे देहे परीषहाः । अचित्त फलक स्तम्भ आदि को प्राप्त कर, वहां अपने आपको स्थापित करे । शरीर को सब प्रकार से विसजित कर दे। परीषह उत्पन्न होने पर, वह यह भावना करे--'यह शरीर ही मेरा नहीं है, तब मुझे परीषह कहां होगा ?'
भाष्यम् २१-स प्रायोपगमनकारी भिक्षुः किञ्चिद् वह प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करने वाला भिक्षु किसी अचेतनं अवस्तम्भनं-भित्ति काष्ठं स्थण्डिलं वा आसाद्य निर्जीव अवष्टंभन-भित्ति, काष्ठ अथवा स्थान को पाकर वहां अपने तत्र आत्मानं स्थापयेत, सर्वश: कायं व्युत्सृजेत्-न आपको स्थापित करे । शरीर को सब प्रकार से विसर्जित कर दे, कुछ काञ्चिदपि कायिकी प्रवृत्ति कुर्यात् । एवं प्रायोपगमनं भी शारीरिक प्रवृत्ति न करे। इस प्रकार प्रायोपगमन अनशन स्वीकृत प्रतिपन्नं भवति ।
होता है। स प्रायोपगमनं प्रतिपद्य अन्यत्वानप्रेक्षामालम्बेत, तेन वह मुनि प्रायोपगमन अनशन को स्वीकार कर अन्यत्वानुप्रेक्षा परीषहाः सोढुं शक्या भवन्ति । प्रायोपगमनं तिसष्वपि का आलंबन ले । उससे परिषहों को सहना शक्य हो जाता है। मुद्रासू प्रतिपन्नं भवति-निपण्णकायोत्सर्गे निषण्ण- प्रायोपगमन अनशन तीनों मुद्राओं-अवस्थाओं में स्वीकार किया जा कायोत्सर्गे ऊर्ध्वकायोत्सर्गे च । एतास तिसष्वपि शरीरस्य सकता है-निपन्न-सोए कायोत्सर्ग में, निषण्ण-बैठे कायोत्सर्ग में चिरकालं एकस्मिन्नेव कायोत्सर्गमद्राविशेषे स्थितस्य और ऊर्ध्व-खड़े कायोत्सर्ग में । इन तीनों मुद्राओं में शरीर को लम्बे सन्तापो जायते । तदानीं 'नायं देहो मम, कतः परीषहाः' समय तक एक ही कायोत्सर्ग की मुद्रा-विशेष में स्थिर रखने के कारण अथवा 'अहं सुखदुःखसमत्वावस्थायां विहरन्नस्मि, तेन सन्ताप होता है। तब 'यह शरीर मेरा नहीं है तो परीषह कहां न मे देहे परीषहा विद्यन्ते' इति आलम्ब्य स समागतान होंगे ?' अथवा 'मैं सुख-दुःख को समान मानता हुआ समत्व में परीषहान् सम्यक् सहते।
विहरण कर रहा हूं, इसलिए मेरे शरीर में परीषह (उपद्रव) नहीं है।' इस आलंबन-सूत्र से वह अनशनकारी भिक्षु आने वाले परीषहों को सम्यक् रूप से सहन करता है।
१. (क) चूर्णी (पृष्ठ २९४) 'अचिरं' स्थानार्थे कालार्थे च
व्याख्यातमस्ति-अचिरं णाय ठाणं, अहवा अचिरं
कालं । (ख) वृत्तौ (पत्र २६७) स्थानार्थे एव–'अचिर'
स्थानम् । यदि एतत् पदमिह स्थानार्थे स्वीक्रियेत तदा 'अइर' (अजिरं) इति पाठस्य सहजं संभावना
जायते। २. आगमानां व्याख्यासाहित्ये 'पाओवगमण' पदं प्रायः
पादपोपगमनरूपेण व्याख्यातमस्ति । तत्प्रतिरूपशब्ददृष्टया नास्ति एतत् समीचीनं, किन्तु भावार्थरूपे एतद् वरेण्यता माश्लिष्यति, यथा च चूणिः- 'एयस्स पादवेण उवमा कोरति पाओवगमणं, जहा पायवो अच्छिन्नोवि ण चलति, कि छिन्नपातो? सो डरमाणे वा छिण्णमाणे वा विसमपडितो वा मित्तिकाढ ण ततो ठाणाओ चलति, अण्णहा ठाणं ण करेइ, एवं एसोऽवि पातववत् पडितो निच्चलो निप्पंदो चिट्ठति ।' (आचारांग चूणि, पृष्ठ २९४)
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