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________________ अ०६. उपधानश्रुत, उ०४. गाथा ५-१२ ४४१ भाष्यम् ७-कदाचिद् दिनद्वयानन्तरं, कदाचिद् भगवान् ने कभी दो दिन, कभी तीन दिन, कभी चार दिन और दिनत्रयानन्तरं, कदाचिद् दिनचतुष्कानन्तरं, कदाचिच्च कभी पांच दिन के बाद भोजन करते थे। समाधि अर्थात् तपःसमाधि । दिनपञ्चकानन्तरं भुक्तवान् । समाधिः-तपःसमाधिः, तं तपःसमाधि की प्रेक्षा करते हुए भगवान् आहार के प्रति उत्सुक नहीं प्रेक्षमाणो भगवान् आहारं प्रति नौत्सुक्यमादृतवान्। रहते थे। ८. णच्चाणं से महावीरे, णो वि य पावगं सयमकासी । अण्णेहि वा ण कारित्था, कोरंतं पिणाणुजाणित्या ।। सं० ज्ञात्वा स महावीरः, नोऽपि च पापकं स्वयमकार्षीत् । अन्यैर्वा नाऽचीकरत्, कुर्वन्तमपि नान्वज्ञासीत् । भगवान महावीर आहार के दोषों को जानकर स्वयं पाप (आरम्भ-समारम्भ) नहीं करते थे, दूसरों से नहीं करवाते थे और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करते थे। भाप्यम् ८-अग्निसमारम्भे दोषं ज्ञात्वा आहारसंबंधे . अग्नि-समारम्भ के दोष को जानकर भगवान् महावीर आहार भगवान महावीरः न पापकं स्वयमकार्षीत्, नान्यः तत् से संबंधित पाप-आरम्भ-समारम्भ न स्वयं करते थे, न उसे दूसरों से कारितवान्, कुर्वन्तमपि नानुज्ञातवान् । नवकोटिपरिशुद्ध- करवाते थे और करने वाले का भी अनुमोदन नहीं करते थे । नवकोटि भिक्षायां पचनपाचनादिकं वजितमस्ति ।' भगवान् परिशुद्ध भिक्षा में पचन-पाचन आदि वजित है। भगवान् ने स्वयं स्वयमपि तद् नादतवान्, तदानीं कथं जीवनयात्रा- उसको स्वीकार नहीं किया तो फिर जीवन-यात्रा का निर्वाह कैसे निर्वाहः स्यात् इत्याशंका सञ्जायते । तस्याः समाधानं संभव हुआ, यह आशंका उत्पन्न होती है। उसका समाधान आगे के अनन्तरश्लोके कृतमस्ति । श्लोक में किया गया है। ९. गामं पविसे णयरं वा, घासमेसे कडं परट्राए। सुविसुद्धमेसिया भगवं, आयत-जोगयाए सेवित्था । सं०-ग्रामं प्रविश्य नगरं वा, घासमेषते कृतं परार्थाय । सुविशुद्धमेषित्वा भगवान्, आयतयोगेन असे विष्ट । भगवान् ग्राम या नगर में प्रवेश कर गृहस्थ के लिए बने हुए आहार को एषणा करते थे। सुविशुद्ध आहार ग्रहण कर संयत योग से उसका सेवन करते थे। भाष्यम् ९-आहारविषये त्रिविधा एषणा प्रति- आहार के विषय में तीन प्रकार की एषणाओं का प्रतिपादन पादितास्ति-गवेषणा, ग्रहणेषणा, परिभोगैषणा च । ग्रामं किया गया है-गवेषणा, ग्रहणैषणा, परिभोगैषणा। भगवान् महावीर नगरं वा प्रविश्य पराथं कृतस्य आहारस्य एषणां कृतवान् गांव या नगर में प्रवेश कर गृहस्थों के लिए बने हुए आहार की एषणा इति गवेषणा। सुविशुद्धस्य आहारस्य ग्रहणं कृतवान् करते थे। यह गवेषणा है। वे सुविशुद्ध आहार का ग्रहण करते थे। इति ग्रहणषणा। संयतेन योगेन तमाहारं सेवितवान् यह ग्रहणषणा है। वे संयत योग से उस आहार का सेवन करते थे। इति परिभोगैषणा। - यह परिभोगषणा है। १०. अदुवायसा दिगिछत्ता, जे अण्णे रसेसिणो सत्ता । घासेसणाए चिट्ठते, सययं णिवतिते य पेहाए। सं०-'अदु' वायसाः बुभुक्षार्ताः, येऽन्ये रसैषिणः सत्त्वाः । घासैषणाय तिष्ठन्ति, सततं निपतितान् च प्रेक्ष्य । भूख और प्यास से पीड़ित काक आदि तथा अन्य पक्षी पान और भोजन की एषणा के लिए चेष्टा करते हैं, उन्हें निरन्तर बैठे हुए देखकर ११. अद् माहणं व समणं वा, गामपिंडोलगं च अतिर्हि वा । सोवागं मुसियारं वा, कुक्कुरं वावि विहं ठियं पुरतो।। सं०-'अदु' माहनं वा श्रमणं वा, ग्रामपिण्डोलकं चातिथि वा । श्वपाकं मूषकारिं वा, कुकुरं वापि 'विहं' स्थितं पुरतः । ब्राह्मण, श्रमण, भिक्षु या अतिथि, चाण्डाल, बिल्ली या कुत्ते को आगे मार्ग में बैठे हुए देखकर १. ठाणं, ९।३०। २. देशीयशब्दः । ... Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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