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________________ आचारांगभाष्यम् १२. वित्तिच्छेदं वज्जतो, तेसप्पत्तियं परिहरंतो। मंद परक्कमे भगवं, अहिंसमाणो घासमेसित्था ॥ (त्रिभिः कुलकम) सं०-वृत्तिच्छेदं वर्जयन्, तेषामप्रीतिकं परिहरन् । मन्दं पराक्रमते भगवान्, अहिंसन् घासमैषिष्ट । उनकी आजीविका का विच्छेद न हो, उनके मन में भय उत्पन्न न हो, इसे ध्यान में रखकर भगवान् धीमे-धीमे चलते थे। वे किसी को त्रास न देते हुए आहार की एषणा करते थे। भाष्यम् १०-१२--स्पष्टमेव । स्पष्ट है। १३. अवि सूइयं व सुक्कं वा, सोयपिंडं पुराणकुम्मासं । अदु बक्कसं पुलागं वा, लद्धे पिडे अलद्धए दविए। सं०-अपि सूपिकं वा शुष्कं वा, शीतपिण्डं पुराणकुल्माषम् । 'अदु' बक्कसं पुलाकं वा, लन्धे पिण्डेऽलब्धे द्रव्यः । भोजन व्यंजन-सहित हो या व्यंजन-रहित, ठण्डा भात हो या वासी उड़द, सत्तू हो या चने आदि का रूक्ष आहार हो, भोजन प्राप्त हो या न हो-इन सब स्थितियों में भगवान् राग या द्वेष नहीं करते थे। भाष्यम् १३–स्पष्टमेव । स्पष्ट है। अस्यानुसारी उपदेश: संवादी उपदेश'ण मे वेति ण कुप्पिज्जा, थोवं लान खिसए।" 'यह मुझे भिक्षा नहीं देता-यह सोचकर उस पर क्रोध न करे । थोड़ा प्राप्त होने पर निन्दा न करे।' 'पंतं लहं सेवंति वीरा समत्तदसिणो।" 'समत्वदर्शी वीर प्रान्त-मीरस, वासी और रूक्ष आहार आदि का सेवन करते हैं।' १४. अवि झाति से महावीरे, आसणस्थे अकुक्कुए माणं । उडमहे तिरियं च, पेहमाणे समाहिमपडिण्णे ॥ सं०-अपि ध्यायति स महावीरः, आसनस्थोऽकुत्कुचः ध्यानम् । ऊर्ध्वमध: तिर्यक् च, प्रेक्षमाणः समाधिमप्रतिज्ञः । भगवान् ऊकड़ आदि आसनों में स्थित और स्थिर होकर ध्यान करते थे। वे ऊंचे, नीचे और तिरछे लोक में होने वाले पदार्थों को ध्येय बनाते थे । उनकी दृष्टि आत्म-समाधि पर टिकी हुई थी। वे संकल्प से मुक्त थे। भाष्यम् १४-इदानीं भगवतो ध्यानमुद्रा निरूप्यते। अब भगवान महावीर की ध्यानमुद्रा का निरूपण किया जाता भगवान् आसनस्थ: ध्यानं करोति । उत्कटुक-वीरासन- है। भगवान् आसन में बैठकर ध्यान करते थे। उनके ये प्रमुख आसन गोदोहिका-ऊर्ध्वस्थानादीनि प्रमुखानि आसनानि । थे-उत्कटुक आसन, वीरासन, गोदोहिका आसन अथवा ऊर्ध्वस्थान आदि । 'अकुक्कुए'पदेन कायोत्सर्गमुद्रा कायगुप्तिर्वा 'अकुत्कुच' पद से कायोत्सर्ग मुद्रा अथवा कायगुप्ति की सूचना सूचितास्ति । ध्यानपदेन धर्मविचयस्य शुक्लस्य वा ग्रहण- दी गई है । 'ध्यान' पद से धर्मविचय अथवा शुक्लध्यान का ग्रहण किया मस्ति । गया है। ध्यानक्षेत्रदृष्ट्या ऊर्वादिपदानां संग्रहः । ध्यान-क्षेत्र की दृष्टि से ऊर्ध्व आदि पदों का संग्रह किया गया है। . भगवान् ऊर्ध्वलोकवतिभावानामभिगमाय ऊर्ध्वध्यानं भगवान् ऊर्ध्वलोकवर्ती भावों को जानने के लिए ऊर्ध्वध्यान करोति । अधोलोकवतिभावानामभिगमाय अधोध्यानं करते थे। अधोलोकवर्ती भावों को जानने के लिए अधोध्यान करते करोति । तिर्यगलोकवतिभावानामभिगमाय तिर्यग्ध्यानं थे। तिर्यग्लोकवर्ती भावों को जानने के लिए तिर्यग्ध्यान करते थे । करोति । १. आयारो, २११०२। झियाति ? उड्डं अहेयं तिरियं च सव्वलोए झायति २. वही, २१६४ । समितं, उड्ढलोए जे भावा एवं अहेवि तिरिएवि, ३. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ३२४ : माइति धर्म सुक्क जेहिं वा कम्मावाणेहि उड्ढं गंमति एवं अहे तिरियं वा, आसणं उक्कुडुओ वा वीरासणेणं वा, अकुकुओ च, अहे संसार संसारहेडं च कम्मविपागं च णाम निच्चलो, दम्वतो सरीरेण निच्चलो भावओ ज्झायति, एवं मोक्खं मोक्खहेऊं मोक्खसुहं च अकुकुओ पसत्थज्माणोवगतो झियाति, कि जमायति। समित, उबलोर के माया एक अवि निरिक, Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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