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________________ अ० ६. उपधानश्रुत, उ० ४. गाथा १३-१६ भगवान् अप्रतिज्ञः सन् समाधि प्रेक्षमाणः शरीरस्य वा ऊर्ध्वाधिस्तिर्वग्भागे समाधि प्रेक्षमाणः ध्यानं करोति । अस्पानुसारी उपदेश: 'आयतचक्खू लोग-विपस्सी लोगस्स अहो भागं जाणइ, उड़ भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ ।" छउमत्ये वि परक्कममाणे, णो पमायं सई पि कुव्विथा ॥ प्रस्वोपि पराक्रममाणः, नो प्रमादं सकृदप्यकार्षीत् । १५. अकलाई विगयो, सद्दरूबेसुमुच्छिए शाति सं० वी विगतगृद्धि, शब्दरुपयोः अमूच्छितः ध्यायति । भगवान् क्रोध, मान, माया और लोभ को शांत कर आसक्ति को छोड़, शब्द और रूप में अमूच्छित होकर ध्यान करते थे। उन्होंने ज्ञानावरण आदि कर्म से आवृत दशा में पराक्रम करते हुए भी एक बार भी प्रमाद नहीं किया । - माध्यम् १५ इदानीं भगवतो ध्यानस्य उद्देश्य निरूप्यते । केचित् कषायोपतप्ताः परानभिशप्तुं केचिद् आसक्ताः पदार्थोपलब्धये केचिच्च शब्दरूपयोः मूच्छि तास्तयोः संग्रहाय ध्यानं कुर्वन्ति किन्तु भगवान् केवलं विशुद्धये ध्यानं कृतवान्। अत एव सोऽकषायी विगत वृद्धि: शब्दरूपयोरमूच्छितश्व ध्यानमुद्रामुपास्थितः । । - न भगवान् छद्मस्थावस्थायामपि पराक्रममाणः सकृदपि प्रमादं अकार्षीत्, सततं जागरूकत्वमन्वभवत्, न च साधनावा: भावो विचलितोऽभवत् । ' (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २८६ : 'किमवस्थो ध्यायतीति दर्शयति -- आसनस्थ :- उत्कटुकगोदोहिकावीरासनाद्यवस्थोऽकौत्कुचः सन् - मुखविकारादिरहितो ध्यानंधम्मं शुक्लयोरन्यतरबारोहति कि पुनस्तत्र ध्येयं घ्यावतीति दर्शयितुमाह ऊठ मधस्तिर्यग्लोकस्य ये जीवपरमाण्वादिका भावा व्यवस्थितास्तान् व्य पर्याय नित्यानित्यादिरूपतया ध्यायति' । (ग) 'ध्यानविचारे' अस्मिन् प्रकरणे उत्साहादीनां संबंध: प्रशितोऽस्ति उत्साहस्य लोकवस्तुचिन्ता । पराक्रमस्य अधोलोकचिन्ता । चेष्टायाः तिर्यग्लोकचिन्तनम् । ध्यानविचार, पृष्ठ १३९) १. आयारो, २।१२५ । २. (क) अत्र चूर्णिकारेण निद्राप्रमादो विवक्षितः - 'छउमत्थ काले विहरते भगवता जयंतेणं धुवंतेणं परवकमंतेणं ण कमाइ पमाली कयतो अविसहा जब एक्स Jain Education International ४४३ भगवान् संकल्प से मुक्त होकर समाधि की प्रेक्षा करते हुए अथवा शरीर के कार्य अधस् और तिरंग् भाग में समाधि की प्रेक्षा करते हुए ध्यान करते थे । , इसका संवादी उपदेश है 'संयतचक्षु पुरुष लोकदर्शी होता है। वह लोक के अधोभाग को जानता है, ऊध्वंभाग को जानता है और तिरछे भाग को जानता अब भगवान् महावीर के ध्यान के उद्देश्य का निरूपण किया जा रहा है । कुछ पुरुष कषायों से उत्तप्त होकर दूसरों को अभिशाप देने के लिए ध्यान करते थे। कुछ पुरुष पदार्थ में आसक्त होकर उसकी उपलब्धि के लिए कुछ शब्द और रूप में मूच्छित होकर उनके संग्रह के लिए ध्यान करते थे। किन्तु भगवान् महावीर केवल विशुद्धि के लिए ध्यान करते थे । इसलिए वे कषाय और आसक्ति से मुक्त तथा शब्द और रूप के प्रति अमूच्छित होकर ध्यानमुद्रा में स्थित होते थे। । भगवान् ने छद्मस्थ अवस्था में भी संयम में पराक्रम करते हुए एक बार भी प्रमाद नहीं किया, सतत जागरूकता का अनुभव किया । वे साधना के भाव से विचलित नहीं हुए । एक्को तो अबिनामे।" ( आचारांग चूर्ण, पृष्ठ ३२४) (ख) वृत्तिकारेण कषायादिप्रमादो विवक्षितः - सबनुष्ठाने पराक्रममाणो न प्रमादं प्रमादं कथावादिकं सकृदपि कृतवानिति । ( आचारांग वृत्ति, पत्र २०६) ( ग ) प्रमाद छह प्रकार का होता है- १. मद्य प्रमाद, २. निद्रा प्रमाद, ३. विषय प्रमाद, ४. कषाय-प्रमाद, ५. यूत प्रमाद, और ६. निरीक्षण (प्रतिलेखना) (ठाणं, ६२४४) भूमिकार के अनुसार भगवान् ने अन्तर्मुहुर्त को छोड़कर निद्रा प्रमाद का सेवन नहीं किया । प्रमाद । वृतिकार के अनुसार भगवान् ने रुपाय आदि प्रभावों का सेवन नहीं किया । इस पाठ का आशय यह है कि भगवान् जीवन-चर्या चलाते हुए भी प्रतिक्षण अप्रमत्त रहते थे । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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