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आचारांगभाध्यम
१६. सयमेव अभिसमागम्म, आयतजोगमायसोहीए। अभिणिवडे अमाइल्ले, आवकहं भगवं समिआसी।
सं०-स्वयमेव अभिसमागम्य आयतयोगमात्मशुद्धया। अभिनित: अमायी, यावत्कथं भगवान् समित आसीत् । स्वयंबुद्ध भगवान् आत्म-शुद्धि के द्वारा आयत-योग-मन, वचन और शरीर की संयत प्रवृत्ति को प्राप्त होकर उपशांत हो गए।
उन्होंने ऋजुभाव से तप की साधना की । वे सम्पूर्ण साधना-काल में समित रहे। - भाष्यम् १६-भगवान स्वयमेव तत्त्वं अभिसमागम्य- भगवान् स्वयं तत्त्व को जानकर, आत्म-शुद्धि के द्वारा आयतज्ञात्वा आत्मशुद्धया आयतयोग-संयतयोगं दृष्ट्वा योग अर्थात् संयतयोग को देखकर, जानकर प्रवृत्तयोग-मन, वचन प्रवृत्तयोगं वा अधिगतवान् । तेन स अभिनिवतः-- और शरीर की संयत प्रवृत्ति को प्राप्त हो गए। इससे वे अभिनित विषयकषायेषु शीतीभूतो जातः। भगवता अमायिना हो गए-विषय और कषायों से सर्वथा उपशांत हो गए । भगवान् ने तपस्तप्तम् । न क्वचिदपि मायार्थ तपोऽनुष्ठितम् ।' एवं ऋजु-भाव से तप तपा। उन्होंने कहीं भी माया के लिए तप नहीं यावज्जीवं भगवान् समित आसीत् ।
किया। इस प्रकार भगवान् यावज्जीवन समित रहे। १७. एस विही अणुक्कतो, माहणेण मईमया । अपडिण्णेण वीरेण, कासवेण महेसिणा ।। -त्ति बेमि ।
सं०-एष विधिरनुक्रान्तः, माहनेन मतिमता । अप्रतिज्ञेन वीरेण, काश्यपेन महर्षिणा।- इति ब्रवीमि । मतिमान् माहन काश्यपगोत्री महर्षि महावीर ने संकल्प-मुक्त होकर पूर्व प्रतिपादित विधि का आचरण किया। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १७-स्पष्टमेव ।
स्पष्ट है।
इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचितं आचारांगभाव्यं पूर्णतामगमत् ।
१. आचारांग चुणि, पृष्ठ ३२५ : 'अमाइल्ले, ण माइट्ठाणेण तवो कतो भगवता वरं देवो वा दाणवो मणुस्सो वा तुस्सिहिति, वरं कम्मक्खयट्ठाए।'
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