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अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० १. सूत्र १४
मूर्द्धायां स्मृतेर्लोपो भवति, अतः पूर्वजन्मस्मृतिः न जायते, तथा विशिष्टनिमित्तं विना विद्यमानानामपि पूर्वजन्मसंस्काराणां साक्षात्कारो न जायते । एतदपि स्मृतेरभवने कारणम् ।
सणा-संज्ञानम् - संज्ञा । सा च द्विविधा - अनुभव - संज्ञा ज्ञानसंज्ञा च मतिः श्रुतं अवधिः मनः पर्यव केवलञ्च एतज्ज्ञानपञ्चकं ज्ञानसंज्ञा । अत एव चूर्णि कृता 'मई सण्णा णाणं एत्था" तथा सम्पत्ति वा बुद्धित्ति वा नाति वा विणणं ति वा एगट्ठा। ज्ञानवाचकानां शब्दानामेकार्यकत्वमत्र प्रदर्शितम् । अनुभवसंज्ञा संवेदनामिका भवति । निर्मुक्तिकृता स्पष्टं निर्दिष्टम् 'अणुभयणा कम्बसंजुत्ता' - अनुभवनसंज्ञा स्वकृतकर्मोदया दिसमुत्था भवति । सा नात्र अधिकृताऽस्ति । अत्रास्ति ज्ञानसंज्ञाया एव अधिकारः ।
सोऽहम् – यस्य पूर्वजन्मनः स्मृतिर्भवति स स्वरूप त्रैकालिक मस्तित्वं प्रति प्रगाढामास्थां लभते ।
'सोsहं' इतिपदेन तस्याभिव्यक्तिः कृताऽस्ति । यस्यास्तित्वं वर्तमानसीमामतिक्रम्य अतीतं व्याप्नोति तस्य अस्तित्वं त्रैकालिकमिति स्वभावत एव उपपद्यते। लब्धजातिस्मृतिर्मनुष्यः अतीतगतं स्वास्तित्वं स्मरति, तस्य सूत्रे साक्षादुल्लेखः कृतोऽस्ति
'जो हमाओ दिखाओ दिखाओ वा अणुसंचर, सम्याओ दिसाओ सम्बाओ अदिसाओ जो आगओ अनुसंचर सोहं'
चूर्णिकारेण इदं पदमाश्रित्य आत्मलक्षणमीमांसाऽपि कृतास्ति । जिज्ञासितं केनचिद् - अस्ति आत्मा, किन्तु तस्य लक्षणं नास्ति निर्दिष्टम्। आचार्येण उत्तरितम् इह निरहंकारे शरीरे यस्यायं अहंकारो, यथा - ' अहं करोमि', 'मया कृतं', 'अहं करिष्यामि' - एषः अहंकारोऽस्ति आत्मनो लक्षणम् ।
दिग् आकाशविशेष एव । सा च नामस्थापनाद्रव्यभावतापक्षेत्र प्रज्ञापकभेदात् सप्तधा । * भावदिशा अष्टादश । प्रज्ञापकदिशा अपि तावत्य एव । अत्र
१. आचारांग भूषि, पृष्ठ ९ ।
२. वही, पृष्ठ १२ ।
३. वही, पृष्ठ १४ जइ वा कोई भणेज्जा भणितं महारएणं- अप्पा अस्थि व तरस लक्षणं उवदिटर्ड, मम्भणितं सोऽहमिति इह निरहंकारे सरीरे जस्स इमोsहंकारो, तं जहा – अहं करेमि मया कथं अहं
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मूर्च्छा में स्मृति लुप्त हो जाती है, इसलिए पूर्वजन्म की स्मृति नहीं रहती तथा विशिष्ट निमित्त के बिना पूर्वजन्म के विद्यमान संस्कारों का भी साक्षात्कार नहीं होता । यह भी स्मृति के न होने का कारण
है ।
संज्ञा :- संज्ञा का अर्थ है-जानना । वह दो प्रकार की होती है—अनुभवसंज्ञा और ज्ञानसंज्ञा मति श्रुत, अवधि, मनः पर्यव और केवल ये पांचों ज्ञान ज्ञानसंज्ञा कहलाते हैं, इसलिए चूर्णिकार ने कहा हैमति संज्ञा और ज्ञान एकार्थक है' 'संज्ञा बुद्धि ज्ञान और हैं।' विज्ञान एकार्थक हैं ।' यहां ज्ञानवाचक शब्दों की एकार्थकता दिखलाई गई है। अनुभवसंज्ञा संवेदनात्मक होती है। नियुक्तिकार ने स्पष्ट निर्देश किया है 'अनुभव कर्मसंयुक्त होता है।' अनुभवसंज्ञा स्वकृतकर्मों के उदय आदि से उत्पन्न होती है। यहां यह प्रासंगिक नहीं है। यहां ज्ञानसंज्ञा का ही प्रकरण है ।
वह मैं - जिसे 'वह मैं' इस रूप में जन्म की स्मृति होती है उसके मन में अपने त्रैकालिक अस्तित्व के प्रति प्रगाढ आस्था पैदा हो जाती है ।
'सोहं' - इस पद से उसकी अभिव्यक्ति की गई है। जिसका अस्तित्व वर्तमान की सीमा का अतिक्रमण कर अतीत तक व्याप्त हो जाता है, उसका अस्तित्व त्रैकालिक होता है, यह स्वाभाविक स्वीकृति है । जातिस्मृति ज्ञान से संपन्न मनुष्य अपने अतीतकालीन अस्तित्व का स्मरण कर लेता है, उसका सूत्र में साक्षात् उल्लेख किया गया है -
'जो इन दिशाओं और अनुविनाओं (विदिशाओं में अनुसंचरण करता है, जो सब दिशाओं और अनुदिशाओं से आकर अनुसंचरण करता है, वह मैं हूं ।'
चूर्णिकार ने इस पद का आश्रय लेकर आत्मा के लक्षणों की मीमांसा की है। किसी ने जिज्ञासा की आत्मा है, किन्तु उसका लक्षण निर्दिष्ट नहीं है। आचार्य ने उत्तर दिया- इस निरहंकार शरीर में जिसका यह अहंकार है, जैसे- मैं करता हूं, मैंने किया है, मैं करूंगा - यह अहंकार आत्मा का लक्षण है ।
आकाश विशेष को ही दिशा कहा जाता है । वह नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, ताप, क्षेत्र और प्रज्ञापक के भेद से सात प्रकार की है । भाव दिशाएं अठारह हैं। प्रज्ञापक दिशाएं भी उतनी ही हैं ।
करिस्सामि एवं तस्स लक्खणं जो अहंकारों, मणितं अप्पलक्खणं ।
४. आचारांग नियुक्ति, गाथा ४० :
नामं ठवणा दबिए खित्ते तावे य पण्णवगभावे । एसा दिसानियेवो सत्तविहो होइ गयो।
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