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________________ अ० ५. लोकसार, उ० ५. सूत्र ६६-९८ अत्र निश्चयव्यवहारनययोः अनुषङ्गः निश्चयनयः । अतीन्द्रियविषयः प्रज्ञागम्यो भवति, व्यवहारनयश्च बुद्धिगम्यः । कश्चिद् बुद्धियुक्तः प्रव्रजितः किञ्चित् तत्त्वं स्वबुद्धया सम्यग् मन्यते, वस्तुतस्तद् असम्यगस्ति, तथैव किञ्चित् तत्त्वं सम्यग् मन्यते, वस्तुतस्तद् सम्यगस्ति । अत्र निश्चय व्यवहारयोः सत्यपि भेदे सूत्रकारः अभेदं प्रस्थापयति । अभेदप्रस्थापकं तत्त्वमस्ति उपेक्षा माध्यस्थ्यम् । यदि मन्तुः उपेक्षास्ति तदा निश्चयनयस्य असम्यगपि व्यवहारनये सम्यम् मन्यमानं सम्यग् भवति । एवं निश्चयनयस्य सम्यगपि व्यवहारनये असम्यग् मन्यमानं असम्यम् भवति ।' ६७. उवेहमाणो अणुवेहमाणं बूया उवेहाहि समियाए । सं० उपेक्षमाणमनुपेक्षमाणं वाद् उपेक्षस्य सम्यये । मध्यस्थ भाव रखने वाला मध्यस्थ भाव न रखने वाले से कहे- 'तुम सत्य के लिए मध्यस्थ भाव का अवलंबन लो ।' भाष्यम् ९७ - उपेक्षमाणः पुरुषः अनुपेक्षमाणं पुरुषं ब्रूयाद्-त्वं सम्यचे सत्यस्योपलब्धये उपेक्षां कुरुष्व – – मध्यस्थभावमवलम्बस्व । १८. इयं तस्य संधी सोसितो भवति । सं० इत्येवं तत्र संधिः जुष्टः भवति । पूर्वोक्त पद्धति से सन्धि आचीर्ण हो जाती है। भाष्यम् ९० इति एवं उपेक्षमाणस्य तत्र काइक्षामोहनीय कर्मवेदनहेतुके ज्ञानान्तरादिषु त्रयोदशसु अन्तरेषु' सन्धिः जुष्टः सेवितो भवति सन्धिरिति १. (क) विकारेण प्रवज्यामधिकृत्य एतद् व्याख्यातम्-'समियंति मण्णमाणस्स, संविग्गभावितो संविग्गाणं चैव सगासे । इमो, एगदा कयाइ, अहवा एगभावो एगता पव्वज्जा, एगता गित्येहि कसाएहि वा असंकप्पो, वितियस्स समियंति मण्णमाणस्स एगया असमिया भवति सो संविग्गसावओ हिसाब महराकुंडला या पाण नातं अविकोविओ वा उत्सन्नसगासे, पच्छा सो समोसरगादिमु पंचे या मेलीयो पुच्छ ते कति ज लक्खणा चैव पडिक्कमति तो से सो चेव परिताओ, अह पुण सयं ठाणं गंतुं परेहि वा चोदितो अच्छइ थोवं वा बहुयं वा कालं तो पुण उबट्ठाविज्जर, ततिओ संविग्गभाविओ चैव असंदिग्गाणं चेवंतेण पव्वयति, संकितो पुण माहू एते णिम्हगा बवेजा, कवयामि ताव पच्छा मदिरसति, संविग्गेहि संमिसीहामि एवं ओच्छय अणेण नातं जहा एया जिहगा समोसरणादि सेसेसु Jain Education International २८१ इस विषय में निश्चयनय और व्यवहारनय का प्रसंग है । निश्चयनय अतीन्द्रियज्ञान का विषय और प्रज्ञागम्य होता है । व्यवहारनय बुद्धिगम्य होता है। कोई बौद्धिक व्यक्ति प्रचलित होता है और वह अपनी बुद्धि से किसी तत्त्व को सम्यग् मानता है, वस्तुतः वह तत्त्व असम्यग् है, वैसे ही वह किसी तत्त्व को असम्यग् मानता है वस्तुतः वह सम्यम् है। इस विषय में निश्चय और व्यवहार का भेद होने पर भी सूत्रकार अभेद की प्रस्थापना करते हैं। अभेद की प्रस्थापना का मूल तत्त्व है उपेक्षा - मध्यस्थता । यदि मानने वाले व्यक्ति की मध्यस्थता है तो निश्चयनय के अनुसार असम्यग् तत्त्व भी व्यवहारनय के अनुसार सम्यग् माना जाता हुआ सम्यग् होता है । इसी प्रकार निश्चयनय के अनुसार सम्यग् माने जाने वाला तत्त्व भी व्यवहारनय के अनुसार असम्यग् माना जाता हुआ असम्यग् होता है । , मध्यस्थ भाव रखने वाला पुरुष मध्यस्थ भाव न रखने वाले पुरुष से कहे तुम सत्य की उपलब्धि के लिए मध्यस्थ भाव का अवलंबन लो । इस प्रकार मध्यस्थभाव का आचरण करने वाले व्यक्ति के कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन में हेतुभूत ज्ञानान्तर आदि तेरह भारों में संधि आचीर्ण हो जाती है। यहां संधि का अर्थ है-सम्यग्दर्शन का 1 संजय भिन्नमाणे, पन्नबनाए या आधारेण वा पछा आलोपए पुणो उबट्टाविज्ज उत्यो मनसोऽभि संकित चित्ताण देव समासे पचदयो, तं देव से दचितं एवं दुहतोवि असमिता जाता ओसण्णाण वा । (चूर्णि, पृष्ठ १९२ ) (ख) वृत्तिकारण अनेकान्तदृष्ट्या व्याख्यातं सूत्रमिवम्( वृत्ति, पत्र २०२ - २०३ ) (ग) जयाचार्येण अस्य महती समोक्षा कृतास्ति ( आचारांग को जोड़ ढाल ४२ गाया १९-७९ ) २.२ ११६९,१७० । ३. (क) आचारांग चूर्ण, पृष्ठ १९३ तत्थ तत्थ नाणंतरे दंसण० चरितंतरे लिगंतरे वा संधाणं संधी दरिसणसंधिमेव अर्थ 'जुषी प्रतिबनयो' अहवा, अहवा पदपादखिलोगगाहाबस उस असण सुयचं अंगसंधिरिति, जुसितं जं भणितं आसेवितं । (ख) आचारांग वृत्ति पत्र २०३ ; सन्धिः कम्र्मसन्ततिरूपो 'झोषितः ' क्षपितो भवति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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