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________________ २८० ६६. सस्सि णं समणुष्णस्स संपव्ययमाणस्स समिति एगया असमिया होइ। असमियंति मण्णमाणस्स एगया होइ समिति मण्णमाणस्स समिया वा असमिया वा वा, असमिया वा, असमिया होइ उवेहाए । सं० - श्रद्धिनः समनुज्ञस्य संप्रव्रजतः सम्यगिति मन्यमानस्य एकदा सम्यग् भवति, सम्यगिति मन्यमानस्य एकदा असम्यग् भवति, असम्यगिति मन्यमानस्य एकदा सम्यग् भवति, असम्यगिति मन्यमानस्य एकदा असम्यग् भवति, सम्यगिति मन्यमानस्य सम्यक् वा, असम्यक् वा, सम्यग् भवति उपेक्षया । असम्यगिति मन्यमानस्य सम्यक् वा असम्यक् वा असम्यग् भवति उपेक्षया । श्रद्धालु, सम्यग् अनुज्ञा (या आचार) वाला तथा सम्यग् प्रव्रज्या वाला मुनि-किसी व्यवहार को सम्यग् मानता है और वास्तव में वह सम्यग् है । वह किसी व्यवहार को सम्यग् मानता है और वास्तव में वह असम्यग् है । वह किसी व्यवहार को असम्यग् मानता है और वास्तव में वह सम्यग् है । वह किसी व्यवहार को असम्यग् मानता है और वास्तव में वह असम्यग् है । व्यवहार वास्तव में सम्यग् हो या असम्यग्, किन्तु सम्यग् मानने वाले के मध्यस्थ ( राग-द्वेष रहित या निष्पक्ष ) भाव के कारण वह सम्यग् होता है । व्यवहार वास्तव में सम्यग् हो या असम्यग्, किन्तु असम्यग् मानने वाले के मध्यस्थ भाव के कारण वह असम्यग् होता है । माध्यम् ९६ - कश्चित् श्रद्धावान् तदेव सत्यं निःश यज्जिनेः प्रवेदितं इति श्रद्दधानः समनुज्ञ: मुनिपदस्य अर्हता प्राप्तः संप्रव्रजितो भवति । (१) स किञ्चित् तत्त्वं आचरणं वा सम्यगिति मन्यते तदानीं तत् सम्यग् भवति । (२) स सम्यगिति मन्यते तदानीं तत् असम्पन् भवति । ( ३ ) स असम्यगिति मन्यते तदानीं तत् सम्यग् भवति । ( ४ ) स असम्यगिति मन्यते तदानीं तत् असम्यग् भवति । एतेषां चतुर्णां भङ्गानां इदानीं भङ्गद्वये समवतारः क्रियते - (१) कश्चित् सम्यगिति मन्यते तदानीं तत् सम्यग् वा असम्यग् वा तस्य उपेक्षया सम्यग् भवति । आचारांग भाष्यम् मण्णमाणस्स एगया समिया होइ। समियंति मण्णमाणस्स समिया होइ। असमियंति मण्णमाणस्स एगया असमिया समिया होड उवेहाए। असमियंति मण्णमाणस्स समिया (२) कश्चित् असम्यगिति मन्यते तदानीं तत् सम्यग् वा असम्यग् वा तस्य तस्य उपेक्षया असम्यग् भवति । १. आप्टे, एकदा - Once, at the same time, simultaneously. २. सब मुनि प्रत्यक्षदर्शी नहीं होते । सबका ज्ञान भी समान नहीं होता और भावधारा भी समान नहीं होती । परोक्षदश किसी व्यवहार का अपनी मध्यस्वदृष्टि से निर्णय करता है। वह व्यवहार वास्तव में सम्यग् है या असम्यग् इसका निर्णय वह नहीं कर सकता। इस स्थिति में सूत्रकार ने यह बताया कि जिसका अध्यवसाय शुद्ध है, जिसकी दृष्टि मध्यस्थ है, वह व्यवहारनय से किसी Jain Education International कोई श्रद्धालु पुरुष यह श्रद्धा रखता है कि तीर्थंकरों ने जो कहा है वही सत्य है, वही निःशंक है, वह समझ मुनिपद की योग्यता को प्राप्त कर प्रव्रजित होता है । १. वह किसी तत्त्व या आचरण को सम्यग् मानता है, तब वह सभ्य होता है। २. वह किसी तत्त्व या आचरण को सम्यग् मानता है, तब वह असम्यग् होता है। ३. वह किसी तत्त्व या आचरण को असम्यग् मानता है, तब वह सम्य होता है । ४. वह किसी तत्त्व या आचरण को असम्यग् मानता है, तब वह असम्यम् होता है। इन चारों विकल्पों का दो विकल्पों में समवतार किया जाता १. कोई व्यक्ति किसी तत्त्व या आचरण को सम्यग् मानता है, वह चाहे आचरण सम्यग् हो या असम्यग् किन्तु उसकी उपेक्षा मध्यस्थता से वह सम्यग् होता है । २. कोई किसी तत्त्व या आचरण को असम्यग् मानता है, वह चाहे आचरण सम्यगु हो या असम्यग् किन्तु उसकी मध्यस्थता के कारण वह असम्यग् होता है । व्यवहार की स्थापना करता है, सम्यग् है । इसी प्रकार उसके व्यवहार उसके लिए असम्यग् है, सम्यग् हो या असम्यग् । वह व्यवहार उसके लिए द्वारा स्थापित असम्यग् भले फिर वह वास्तव में मध्यस्थ भाव से सम्यग् व्यवहार करने वाला श्रमण सत्य का आराधक होता है। यही तथ्य प्रस्तुत सूत्र में वर्णित है। पांच व्यवहारों के वर्णन से इसकी पूर्ण संगति है । (देखें - ठाणं ५।१२४ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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