________________
अ० ५. लोकसार, उ० ५. सूत्र ६२-६५
४. सिया वेगे अणुगच्छति, असिया वेगे अणुगच्छंति, अणुगच्छमाणेह अणणुगच्छमाणे कहं ण णिविज्जे ?
० सिला: बैंके अनुगच्छन्ति, असिताः बैंके अनुगच्छन्ति, अनुगच्छत्सु अननुगच्छन् कथं न निविधीत |
कुछ तत्त्वज्ञ शिष्य आचार्य का अनुगमन करते हैं, कुछ अतस्वज्ञ शिष्य भी अनुगमन करते हैं । अनुगमन करने वालों में कोई अनुगमन न करने वाला उदासीन कैसे नहीं होगा ?
भाष्यम् ९४ - शिष्या द्विविधा भवन्ति सिता असिताश्च हिताः संयुक्ता: तत्वज्ञानेन असिता:असंयुक्ताः तत्त्वज्ञानेन । केचित् सिता अपि आचार्येण प्रतिपाद्यमानमर्थमनुगच्छन्ति केचिद् असिता अपि तमनुगच्छन्ति । ते अनुगच्छन्तः कृतज्ञभावं प्रदर्शयन्तो भणन्ति - अहो ! सुभाषितं महाश्रमणैः । तेषु अनुगच्छत्सु कश्चिद् अननुगच्छन्– आचार्योक्तं प्रति विचिकित्सां कुर्वाणः कथं न निर्विन्दीत ? तादृश: अवश्यमेव सम्यग् दर्शनं प्रति तपः संयमं प्रति वा उदासीनो भवेत् ।"
५. तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहि पवेइयं । सं० तदेव सत्यं निःशङ्क' यत् जिनैः प्रवेदितम् । वही सत्य और निःशंक है, जो तीर्थंकरों ने प्ररूपित किया है ।
भाष्यम् ९५ – तस्य सूक्ष्मतत्त्वमनव बुद्ध्यमानस्य शिष्यस्य निर्वेदं निरसितुमालम्बनसूत्रमिदम्। यदि त्वं सूक्ष्मतत्त्वं प्रतिपत्तुं नार्हसि तथापि तस्मिन् विचिकित्सां मा कुरु जिना वीतरागा भवन्ति ते अयवार्थ न प्रतिपादयन्ति तेन एवं श्रद्धां कुरु- यज्जिनेः प्रवेदितं तत् सत्यमेव तत् निःशङ्कमेव । एतत्संवादिसूत्र भगवत्यामपि दृश्यते ।"
1
१. आचारांग चूर्णि पृष्ठ १९१ : ते पुण सिस्सा दुविहासिता य असिता, तत्थ सिता बद्धा, जं भणितं गृहस्था, असिया साहू, अबद्धा कलत्तातिपासेहि ।
२. प्रिता की स्थिति में जो मनःस्थिति निर्मित होती है, उसका वर्णन प्रजापरियह और ज्ञान- परोयह में मिलता
Jain Education International
---
से नूणं मए पुव्वं कम्माणाणफला कडा । जेणाहं नाभिजामि पुट्ठो केणइ कन्हुई ।। अह पच्छा उइज्जति कम्माणाणफला कडा । एवमस्सासि अप्पाणं नच्चा कम्मविवागयं ॥ निरट्ठगम्मि विरभ मेहुणाओ सुसंबुडो । जो सक्खं नाभिजानामि धम्मं कल्लाणपावगं ॥ तबोवहाणमादाय पडिम पडिवज्जओ । एवं पि विहरओ मे छउमं न नियट्टई ॥ (उत्तरायणाणि २०४०-४३ )
२७६
शिष्य दो प्रकार के होते हैं सित और असित । सिततत्त्वज्ञान से युक्त, असित तत्त्वज्ञान से रहित । कुछ शिष्य तत्त्वज्ञान से युक्त होकर भी आपा द्वारा प्रतिपादित अर्थ का अनुगमन करते हैं, कुछ तत्त्वज्ञान से असंयुक्त होकर भी उसका अनुगमन करते हैं । वे आचार्य के अर्थ का अनुगमन करते हुए कृतज्ञभाव को अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं - अहो ! महाश्रमण ने बहुत ठीक कहा है । अनुगमन करने वाले उन शिष्यों में से कोई एक शिष्य आचार्य के कथन के प्रति विचिकित्सा करता है वह संयम के प्रति उदासीन कैसे नहीं होगा ? वैसा शिष्य अवश्य ही सम्यग्दर्शन अथवा तप-संयम के प्रति उदासीन हो जाता है ।
सूक्ष्म तत्त्व के अवबोध से शून्य निरसन के लिए यह आलंबन सूत्र है
उस शिष्य की उदासीनता के यदि तु सूक्ष्म तत्त्व को जानने में असमर्थ है, फिर भी तू उसमें शंका मत कर। जिन वीतराग होते हैं। ये अयथार्थ का प्रतिपादन नहीं करते, इसलिए अपनी श्रद्धा को तू इस प्रकार दृढ कर वीतराग ने जो कहा है, वह सत्य ही है, वह निःशंक ही है । इसका संवादी सूत्र भगवती में भी प्राप्त होता है ।
यह प्रथम दुःखशय्या से तुलनीय हैसारिओ पाहा
तत्थ खलु इमा पढमा दुहसेज्जा-से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पथ्वइए णिग्गंथे पावयणे संकिते कंखिते वितिमिपिसमा समावणे यांचं पाव जो सहति णो पत्तियति जो रोड, निग्बंध पावणं असमाने अतिमा अरोपमाणे मगं उच्चावयं वास मावज्जति पढमा दुहसेज्जा । (डानं ४१४५०) ३. अंगसुतानि २, भगवई ११३१, १३२ : से नूणं भंते ! मेसचं ? हंता गोवमा ! तमेव सत्यं णीसंकं जं जिणेहि पवेदयं । से नूणं भंते ! एवं मणं धारेमाणे, एवं पकरेमाणे, एवं चिमाणे एवं संवरेमाने आथाए आराहए भवति ? हंता गोपमा ! एवं मणं पारेमाणे, एवं पफरेमाणे एवं चिट्ठेमाणे, एवं संवरेमाने आगाए आराहए भवति ।
,
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org