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________________ २७८ भाष्यम् ९१ - ये सर्वतो गुप्ताः प्रज्ञावन्तः प्रबुद्धाः आरम्भोपरताश्च भवन्ति त एव महर्षयो वस्तुत आचार्या भवन्ति, एतद् यूयं सम्यक् पश्यत । ' १२. कालरस खाए परिव्ययंति ति बेमि । - कालस्य कांक्षया परिव्रजन्ति इति ब्रवीमि । वे जीवन के अन्तिम क्षण तक संयम में परिव्रजन करते हैं, ऐसा मैं कहता हूं । सं० भाष्यम् ९२ - ते आचार्याः कालस्य' काङ्क्षया-समाधिमरणकालपर्यन्तं अनया एव परिपाट्या परिव्रजन्ति इति ब्रवीमि । 7 भाष्यम् ९३ - इदानीं शिष्यप्रकरणं आरभ्यते । शिष्यः अर्थाधिगमार्थं आचार्यमुपसंपद्यते । अर्धा द्विविधा भवन्ति - सुबाधिगमाः दुःखाधिगमाश्च । तत्र अमूर्ता मूर्ता अपि सूक्ष्माश्च अर्था दुःखाधिगमा भवन्ति । तेषामधिगमावसरे विचिकित्सा उत्पद्यते-अयमर्थ एवं अन्यथा वा इति विचारो जायते । ६३. वितिगिच्छ-समावन्नेणं अप्पाणेणं णो लभति समाधि । सं० – विचिकित्सासमापन्नः आत्मा नो लभते समाधिम् । शंकाशील आत्मा समाधि को प्राप्त नहीं होता । समाधिः ऐका समाधानं वा यः सूक्ष्मेषु अर्येषु विचिकित्सा समापन्नो भवति स सन्देहदोलायामान्दोलायमानः कस्मिन्नपि तस्ये नैकाप्यं लभते न च सम्यग्दर्शनसमाधिमपि अधिकरोति । " १. 'पश्यत' का प्रयोग दर्शन या चिन्तन की स्वतन्त्रता का सूचक है ! सूत्रकार कहते हैं— 'मैंने कहा, इसलिए तू इसे स्वीकार मत कर, किन्तु अपनी कुशाग्रीयबुद्धि व सदस्य भाव से इस विषय को देख । २. (क) आचारांग चूर्णि, पृष्ठ १९० : कालो नाम समाहि मरणकालो । आचारांगभाव्यम् जो सर्वतः गुप्त, प्रज्ञावान्, प्रबुद्ध और आरंभोपरत होते हैं वे महर्षि ही यथार्थरूप में आचार्य होते हैं । यह सम्यग् है, इसे तुम देखो । (ख) आचारांग वृत्ति पत्र २०० : कालः समाधिकालः । ३. (क) आचारांग चूर्णि पृष्ठ १९० : सव्वओ वयंतीति । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २००: परि समन्ताद् व्रजन्ति परिव्रजति उद्यच्छन्ति । ४. आचारांग चूणि, पृष्ठ १९० बेमित्ति करणं अज्झायअन्यणसुवधयपरिसमत्तीए भवति इह उ पगरणसमसीए बब्वं । Jain Education International वे आचार्य काल - समाधिमरणकाल की कांक्षा से अर्थात् समाधिमरणकालपर्यन्त इसी विधि से परिव्रजन करते हैं, ऐसा मैं कहता हूं । अब यहां से शिष्य का प्रकरण प्रारम्भ होता है । शिष्य आगम-विषयों को जानने के लिए आचार्य के पास उपस्थित होता है। आगम विषय दो प्रकार के होते हैं - सरलता से ज्ञात होने वाले और कठिनाई से ज्ञात होने वाले । अमूर्त विषय और सूक्ष्म मूर्त विषय भी कठिनाई से जाने जाते हैं उनको जानते समय विचिकित्सा या शंका पैदा होती है- यह विषय इसी प्रकार है या अन्यथा, ऐसा विचार होता है। समाधि का अर्थ है-मन की एकाग्रता अथवा चित्त का समाधान । जो सूक्ष्म अर्थों के प्रति शंकाशील होता है वह संदेह के झूले में भूलता हुआ किसी भी विषय में एकाग्र नहीं हो पाता और न वह सम्यक् दर्शन की समाधि को ही उपलब्ध कर पाता है । ५. भगवत्यामपि एतत्संवादित्वं दृश्यते अस्थि णं मंते ! समणा विनिगांचा खामोि कम्यं वेति ? हंता अस्थि । कण्णं भंते ! समणा निग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति ? गोयमा तेहि तेहि नाणंतरेहि दंसणंतरेहि, चरित रेहि, लिंगंतरेहि पवयणंतरेहि पावयणंतरेहि, कप्पंतरे हि, मगंतरेहि, मतंतरेहि, भंगंतरेहि, जयंतरे हि नियमंतरेहि, पमातहि संकिता कंखिता वितिकिच्छिता भेदसमावन्ना कलुससमापन्ना एवं समया दिग्गंधा खामोहि कम्मं वेदेति । (अंगाणि २, भगवई १।१६९,१७० ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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