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आचारांगभाष्यम सम्यगदर्शनस्य सन्धानम् । ज्ञानादीनां विविधेषु भेदेषु संधान । ज्ञान आदि के अनेक भेद हैं। उनमें मध्यस्थभाव रखने से ही मध्यस्थभावेनैव सम्यक्त्वं स्थापयितुं शक्यम् ।
सम्यक्त्व की स्थिरता शक्य हो सकती है।
E६. उट्रियस्स ठियस्स गति समणुपासह । सं०-उत्थितस्य स्थितस्य गति समनुपश्यत । तुम संयम में उत्थित और स्थित पुरुष की गति को देखो।
भाष्यम् ९९-यः सम्यगुत्थानेन उत्थितः', गुरुकुले जो पुरुष संयम में उत्थित है, गुरुकुल में स्थित है, उसकी स्थितश्च, तस्य गति प्रतिष्ठा पदवीं वा यूयं गति-प्रतिष्ठा या पदवी को तुम सम्यक् प्रकार से देखो। गुरुकुल में समनुपश्यत । गुरुकुले निवसतः तस्य श्रुतज्ञानस्य निवास करने वाले मुनि में तीन गुण सम्यक् प्रकार से संपादित होते योग्यता, दर्शनस्य स्थैर्य, चारित्रस्य च निष्प्रकम्पता हैं - (१) श्रुतज्ञान की योग्यता, (२) दर्शन की स्थिरता और (३) सम्यग् जायते।
चारित्र की अप्रकंपता।
१००. एत्थवि बालभावे अप्पाणं णो उवदंसेज्जा।
सं०-अत्रापि बालभावे आत्मानं नो उपदर्शयेत् । हिंसा निर्दोष है, इस बालभाव में भी तुम अपने को प्रदर्शित मत करो।
भाष्यम १००-अत्र हिंसाया विषये केषाञ्चिद् हिंसा के विषय में कुछेक दार्शनिकों का बालभाव-अज्ञान है। दार्शनिकानां बालभावो विद्यते। ते मन्यन्ते-यथा वे मानते हैं-जैसे आकाश में न दाह होता है और न छेद होता है, आकाशे दाहच्छेदौ न भवतः तथा आत्मन्यपि दाहच्छेदौ वैसे ही आत्मा में भी न दाह होता है और न छेद होता है । आत्मा न भवतः। आकाशवद् नित्योऽस्ति आत्मा, तेन नास्ति आकाश की भांति नित्य है, इसलिए कोई प्राणातिपात नहीं कश्चित प्राणातिपातः। एतादृशे बालभावे आत्मानं होता, हिंसा नहीं होती। ऐसे बालभाव- अज्ञान में मुनि अपने को नोपदर्शयेत, आत्मनः नित्यत्वमधिगत्य हिंसायाः प्रदर्शित न करे । आत्मा का नित्यत्व जान कर हिंसा का समर्थन समर्थनं न कुर्यात्, अपितु हिंसायां प्रवृत्तान् एवं न करे, किन्तु हिंसा में प्रवृत्त मनुष्यों को इस प्रकार प्रतिबोध देप्रतिबोधयेत्
१०१. तुमंसि नाम सच्चेव जं 'हंतव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'अज्जावेयव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम
सच्चेव जं 'परितावेयव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'परिघेतव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'उद्दवेयव्वं' ति मन्नसि । सं०-त्वमसि नाम स एव यं हन्तव्य इति मन्यसे, त्वमसि नाम स एव यं आज्ञापयितव्य इति मन्यसे, त्वमसि नाम स एव यं परितापयितव्य इति मन्यसे, त्वमसि नाम स एव यं परिग्रहीतव्य इति मन्यसे, त्वमसि नाम स एव यं उद्घोतव्य इति मन्यसे ।। जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है । जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू वास बनाने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू मारने योग्य मानता है, वह तू ही है।
१-२. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १९३, उद्वितस्स गुरुकुले
वसंतो गति समणुपस्सह, कि गति गतो? जहा कोयि रायसेवगो रायाणं आराहित्ता पट्टबंध पत्तो, तत्थ लोए वतारो भवंति-पेह अमुगो के गति गओ ? एवं अमितरइस्सरियत्तणेण महाविज्जाए वा, इह हि आयरियकुलावासे वसंतो 'णीयं सेज्ज गति ठाणं णियमा (णीयं च आ) सणाणि या एवं वट्टमाणो 'पूज्जा य से पसीयंति, संबुद्धा
पुव्वसंथुता।' सो अचिरयकालेण आयरियपदं पावति पट्टबंधठाणीयं, अतो वुच्चति-उद्वितस्स द्वितस्स, अनाओवि रिद्धिओ पावंति, सिद्धिति
देवलोग वा।' (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २०३, उत्थितस्य निःशंकस्य
श्रद्धावतः स्थितस्य गुरुकुले गुरोराज्ञायां वा या गतिभवति, या पदवी भवति ।
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