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आचारोगभाध्यमे
अवमचेलिको भवति।'
'-अल्प या अतिसाधारण वस्त्र धारण करने वाला होता है। ४६. एयं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं ।
सं०-एतत् खलु वस्त्रधारिणः सामग्र्यम् । यह वस्त्रधारी भिक्षु की सामग्री (उपकरण-समूह) है। भाष्यम् ४९-स्पष्टम् ।
स्पष्ट है। ५०. अह पुण एवं जाणेज्जा-उवाइक्कते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवन्ने, अहापरिजुण्णाई वत्थाइं परिदृवेज्जा, अहापरिजुण्णाई
वत्थाइं परिदृवेत्तासं०-अथ पुनः एवं जानीयात् -उपातिक्रांतः खलु हेमन्तः, ग्रीष्मः प्रतिपन्न:, यथापरिजीर्णानि वस्त्राणि परिष्ठापयेत्, यथापरिजीर्णानि वस्त्राणि परिष्ठाप्यभिक्षु यह जाने कि हेमन्त बीत गया है, ग्रीष्म ऋतु आ गई है, तब वह यथापरिजीर्ण वस्त्रों का विसर्जन करे । उनका विसर्जन कर
भाष्यम् ५०-अत्र प्राचीनपरम्परा--गिम्हे पडिवन्ने वस्त्र-विषयक प्राचीन परम्परा यह है-ग्रीष्म ऋतु के आ जाने चित्ते वइसाहे च, अहापरिजुन्नाइं वत्थाई परिविज्जा पर चैत्र-वैशाख मास में उन सभी जीर्ण वस्त्रों को, यदि वे आगामी सम्वाइंपि, जति बितिजं हेमंतं ण पार्वति तो परिवेइ, तहा हेमन्त ऋतु में काम आने योग्य न हों तो विसर्जित कर दे। जीर्ण जुन्नाइं परिठ्ठवित्ता अट्टमासे अपाउओ चेव भवति, अह पुण वस्त्रों का विसर्जन कर आठ मास तक निर्वस्त्र रहे। यदि यह जाने एवं जाणिज्जा-पडीदुल्लहाई, न भविस्संति वा, ताहे जं जुष्णं कि वस्त्र-प्राप्ति दुर्लभ है, आगे मिलने की सम्भावना नहीं है तो अतितं परिट्ठवित्ता सेसगाणि धारेति, ण पाउणति ।'
जीर्ण वस्त्र को विसर्जित कर शेष को रख ले, किन्तु उन्हें काम में न ले। ५१. अदुवा संतरुत्तरे। सं०-अथवा सान्तरोत्तरः । या एक अन्तर और एक उत्तर वस्त्र रखे। भाष्यम् ५१-ऋतुत्रयकलनायां चैत्रमासोऽपि ग्रीष्म- संवत्सर की तीन ऋतुओं की परिकल्पना में चैत्र मास का वेव समवतरति । अत्र प्राचीन परम्परा-जति चित्ते अवतरण भी ग्रीष्म ऋतु में होता है। इस विषयक प्राचीन परम्परा सीतं पडति जहा गोल्लविसए ताहे संतस्त्तरो भवति, एगं अंतरे यह है -यदि गोल्ल देश की भांति चैत्र मास में ठण्ड पड़ती है तब एग उत्तरे सवडीभवति ।
मुनि 'सान्तरोत्तर' होता है। वह दो वस्त्र धारण करता है-एक अंतर,
एक उत्तर । वत्तौ सान्तरोत्तरपदं भिन्नदृष्टिकोणेन व्याख्यातम्- वृत्तिकार ने 'सान्तरोत्तर' पद की भिन्नदृष्टि से व्याख्या की 'अथवा क्षेत्रादिगुणाद्धिमकणिनि वाते वाति सत्यात्मपरि- है-अथवा किसी क्षेत्र विशेष में बर्फीली हवा के चलने पर मुनि तलनार्थ शीतपरीक्षार्थं च सान्तरोत्तरो भवेत्-सान्तर- अपने आपको तोलने के लिए तथा अपनी शीत-सहन की शक्ति की मत्तर-प्रावरणीयं यस्य स तथा, क्वचित्प्रावृणोति परीक्षा करने के लिए 'सान्तरोत्तर' होता है-एक अन्तर और एक १. 'अवम' शब्द गणना और प्रमाण-दो दृष्टियों से विवक्षित य संडासो दो य रयणीओ। है। गणना की दृष्टि से तीन वस्त्र रखने वाला अवम-चेलिक
(आचारांग चूणि, पृष्ठ २७३-२७४) होता है । प्रमाण की दृष्टि से दो रत्नी (मुट्ठी बंधा हुआ
वृत्तौ मूल्यस्यापि उल्लेखो वर्तते--अवमं च तच्चेलं च हाय) और घुटने से कटि तक चौड़ा वस्त्र रखने वाला अवमचेलं, प्रमाणतः परिमाणतो मूल्यतश्च, तद्यस्यास्त्यअवम-चेलिक होता है।
साववमचेलिकः। (आचारांग वृत्ति, पत्र २५१) (देखें-निशीथ भाष्य, १६॥३९, गाथा ५७८९) २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २७४ । चूणीं गणनाप्रमाणयोरेव उल्लेखोस्ति-ओमचेलिते ३. वही, पृष्ठ २७४ । गणणेण पमाणेण य, गणणपमाणेणं तिष्णि पमाणं, पमाणेण
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