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उपोद्घातः वीरा समत्तदंसिणो।"
प्रान्त और रूक्ष आहार आदि का सेवन करते हैं।' २. लाभालाभयोः समत्वम्-'लाभो त्ति न मज्जे- २. लाभ-अलाभ में समता-'आहार का लाभ होने पर मद न ज्जा।२ 'अलाभो त्ति ण सोयए।"
करे।'
'आहार का लाभ न होने पर शोक न करे।' ३. प्रियाप्रिययोः समत्वम् -'सुभि अदुवा दुभि। ३. प्रिय-अप्रिय में समता--'मनोज्ञ या अमनोज्ञ शब्दों को समभाव 'का अरई ? के आणंदे ? एत्थंपि अग्गहे चरे । से सहन करे।' सव्वं हासं परिच्चज्ज, आलीणगुत्तो परिव्वए।'५ 'साधक के लिए क्या अरति और क्या आनन्द ? वह अरति और
आनन्द के विकल्प को ग्रहण न करे। वह हास्य आदि सभी प्रमादों को त्याग, इन्द्रिय-विजय कर तथा मन-वचन-काया का
संवरण कर परिव्रजन करे।' जीवनस्य नानाव्यवहारपक्षेषु समत्वमाचरन् पुरुषः
जीवन के अनेक व्यावहारिक पक्षों में समता का आचरण अध्यात्म-प्रसादं प्राप्नोति-समयं तत्वेहाए, अप्पाणं करता हुमा व्यक्ति अध्यात्म-प्रसाद-चित्त की प्रसन्नता को प्राप्त विप्पसायए।"
होता है। --'पुरुष जीवन में समता का आचरण कर अपने चित्त
को प्रसन्न करता है।' समत्वं वस्तुतः समाधिः निविचारावस्था वा। समता का वास्तविक अर्थ है--समाधि, निर्विचार अवस्था । तस्यामवस्थायामेव अन्तरात्मा प्रसीदति ।'
उसी अवस्था में अन्तरात्मा में प्रसन्नता फूटती है। प्रस्तुतागमे पदार्थस्यार्थे 'रूप' शब्दस्य प्रयोगो प्रस्तुत आगम में पदार्थ के अर्थ में 'रूप' शब्द का प्रयोग दश्यते-'विरागं रूवेहि गच्छेज्जा, महया खुडुएहि
मिलता है।-'पुरुष छोटे या बड़े-सभी प्रकार के रूपों-पदार्थों वा।" अस्मिन्नर्थे 'दृष्ट' शब्दस्य प्रयोगोऽपि विद्यते
के प्रति वैराग्य धारण करे।' 'दिळेंहिं णिव्वेयं गच्छेज्जा।"
पदार्थ के अर्थ में 'दृष्ट' शब्द का भी प्रयोग प्राप्त है-'पुरुष
दृष्ट-पदार्थों या विषयों के प्रति विरक्त रहे।' वैराग्यनिर्वेदावपि समतायाः सहचरावेव। समता वैराग्य और निवेद-ये दोनों भी समता के सहचारी हैं। सम्यक्त्वं वा आध्यात्मिको धर्म:-'समियाए धम्मे, समता का अर्थ है सम्यक्त्व अथवा आध्यात्मिक धर्म। 'तीर्थंकरों आरिएहिं पवेदिते ।" एवं धर्ममादृत्य जीवा दुःखाद् ने समता में धर्म कहा है।' इस समता धर्म को स्वीकार कर जीव जन्ममरणचक्राद् वा मोक्षं लभन्ते। समताधर्मोऽयं दुःख और जन्म-मरण के चक्र से छूट जाते हैं। यह समता धर्म दो संवरनिर्जराभ्यां विभक्तोऽस्ति । संवरेण दुःखहेतूनां भागों में विभक्त है-संवर और निर्जरा। संवर धर्म से दुःख के निरोधो भवति । निर्जरया च दुःखं क्षीणं भवति । अनया हेतुओं का निरोध होता है और निर्जरा धर्म से दुःख का क्षय होता प्रणाल्या दुःखमोक्षः प्रजायते-'आयाणं णिसिद्धा है । इसी प्रणाली से दुःख का मोक्ष होता है--'जो कर्म के सगडब्भि ।"
उपादान-राग-द्वेष को रोकता है, वही अपने किए हुए कर्मों का
भेदन कर पाता है।' भगवता महावीरेण आवरणानि अभिभूय पश्यकत्वं भगवान् महावीर आवरण-घात्यकों का क्षय कर द्रष्टालब्धम् । सति पश्यकत्वे यद् दृष्टं तदुपदर्शितम् । अत भाव को प्राप्त हुए । द्रष्टा होने के पश्चात् जो कुछ उन्होंने देखाएव एतद् दर्शनं पश्यकस्य दर्शनं विद्यते-'एयं पासगस्स अनुभव किया उसका उन्होंने उपदेश दिया। इसीलिए यह जैन दसणं उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स । १२
दर्शन द्रष्टा का दर्शन है-यह अहिंसक और निरावरण द्रष्टा का दर्शन है।
१. आयारो, २१६४ व्रष्टव्यं-८/१०१ सूत्रम् । २. वही, २११४ ३. वही, २१११५॥ ४. वही, ६५५ ५. वही, ३३६१॥ १. वही, ३।५५।
७. तुलना-पातंजलयोगदर्शन १९४७ । ८. आयारो, ३१५७ । ९. वही, ४।६। १०. वही, ८।३१ । ११. वही, ३८६ । १२. वही, ३८५।
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