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अ० २. लोकविचय, उ० ६. सूत्र १५७-१६१
१४३ वीरोऽस्ति, तेन अरति रति च न सहेत ।' ते तत्कालं सकती है, पर वह साधक वीर है, इसलिए वह अरति तथा रति को मनसो निष्कासयेत् । निष्कासनस्य प्रक्रियामपि सूत्रकारो सहन न करे। उनको तत्काल मन से निकाल दे। उनके निष्कासन की दर्शयति-तयोः द्वयोरपि अविमनस्कताबलात् रेचनं प्रक्रिया भी सूत्रकार बतलाते हैं-उन दोनों--अरति और रति का भी कर्त शक्यम् । अरति: रतिश्च द्वे अपि मनसो विशिष्टा- अविमनस्कता-मध्यस्थता के बल से रेचन किया जा सकता है। अरति वस्थे स्तः । यदा मनसि तयोरूर्मयः उत्पद्यन्ते, तदा पुरुषो और रति ये दोनों मन की विशिष्ट अवस्थाएं हैं । जब मन में उनकी विमनाः भवति । यदि ध्यानबलेन उत्पन्नमात्राः ताः तरंगें उत्पन्न होती हैं तब मनुष्य विमना होता है। यदि व्यक्ति उत्पन्न ऊर्मीः निरुणद्धि-क्षणमात्रमपि न सहते, तत्कालं मनो होते ही उन ऊर्मियों का ध्यान-शक्ति से निरोध कर लेता है, क्षणमात्र के निविषयं निर्विकल्पं वा करोति, स अविमना: भवति । लिए भी उनको सहन नहीं करता अथवा तत्काल ही मन को निविषय स वीरः स्ववीर्येण विचयात्मकं धर्मध्यानमालम्बते, अत या निर्विकल्प बना लेता है, वह अविमना होता है । वह वीर साधक एव स विषयेष न रज्यति । सर्वेभ्यः इष्टानिष्टेभ्यः अपनी शक्ति से विचयात्मक धर्म-ध्यान का आलंबन लेता है, इसीलिए शब्दादिविषयेभ्यो विरक्तो भवति ।
वह विषयों में आसक्त नहीं होता। वह इष्ट-अनिष्ट सभी शब्दादि
इन्द्रिय-विषयों से विरक्त हो जाता है। उत्पन्नमात्रस्य अरतेः रतेश्च तरंगस्य तत्कालं अरति और रति की तरंग के उत्पन्न होते ही तत्काल उसकी प्रेक्षणं निष्कासनं निरोधनं वा, तस्य क्षणमात्रमपि न प्रेक्षा करना, उसका निष्कासन अथवा निरोध करना, उसे क्षणभर के सहनं. एतदस्ति जागरूकताहेतुकम् । भावक्रियाया लिए भी सहन न करना, यह जागरूकता का हेतु है । भावक्रिया के अभ्यासेनैव तादशी जागरूकता संभाव्यते। इदमेव अभ्यास से ही वैसी जागरूकता सम्भव हो सकती है। यही अप्रमाद अप्रमादसाधनायाः रहस्यम् ।'
की साधना का रहस्य है।
१६१. सद्दे य फासे अहियासमाणे।
सं०-शब्दान् च स्पर्शान् अध्यासमानः । अनासक्त साधक शब्द और स्पर्श को सहन करता है।
१. आचारांग चूणि, पृष्ठ ९३ : ण इति पडिसेधे, सधणं
मरिसणं, जति णाम कदायि तस्स परक्कमतो तवणियमसंजमेसु अरती भवेज्जा ततो तं खणमित्तमवि ण सहति, खिप्पमेव झाणेण मणतो निच्छुभति-णिव्विसयं करेति, वीर इति
विदारयति तत्कर्म, तपसा च विराजते ।
तपोवीर्येण युक्तश्च , वीरो वीरेण दशितः॥ जहेब संजमे अति ण सहति तहेव विसयकसायादिलक्खणे असंजमे जति कहंचि तस्स रती उप्पज्जति तंपि खणमित्तमवि ण सहति-ण खमति, धम्मज्माणसहगतो उप्पण्णमित्तं णिक्कासति, 'जम्हा अविमणे' जम्हा सो इट्ठाणिठेसु पत्तेसु विसएसु धितिबलअस्सितो अविमणो भवति, अहवा जम्हा सो संजमे अति ण सहति असंजमे अ रति तेण मज्झत्थो णिच्चमेव अविमणो धीरो 'तम्हादेव विरज्जते' विसएसु। २. अरति को सहन न करना-यह संकल्प-शक्ति (Will
power) के विकास का सूत्र है। जिसके प्रति मनुष्य का आकर्षण नहीं होता, उसके प्रति प्रयत्नपूर्वक ध्यान करने से, मानसिक धारा को प्रवाहित करने से संकल्प-शक्ति विकसित
होती है। इन्द्रियों का आकर्षण विषयों के प्रति होता है। विषय-विरति के प्रति उनका आकर्षण नहीं होता। इसलिए कभी-कभी साधक के मन में विषय-विरति के प्रति अरति उत्पन्न हो जाती है। उस अरति को सहने वाले साधक का संकल्प शिथिल हो जाता है। जो साधक अरति को सहन नहीं करता, विषय-विरति के प्रति अपने मन की धारा को प्रवाहित करता है, वह अपनी संकल्प-शक्ति का विकास कर संयम को सिद्ध कर लेता है।
भगवान महावीर की साधना अप्रमाद (जागरूकता) और पराक्रम की साधना है। साधक को सतत अप्रमत्त और पराक्रमी रहना आवश्यक है। साधना-काल में यदि किसी क्षण प्रमाद आ जाता है-अरति, रति का भाव उत्पन्न हो जाता है, तो साधक उसी क्षण ध्यान के द्वारा उसका विरेचन कर देता है। इससे वह संस्कार नहीं बनता, प्रन्थिपात नहीं होता।
अरति-रति का रेचन न किया जाए, तो उससे विषयानुबन्धी चित्त का निर्माण हो जाता है। फिर विषय की आसक्ति छूट नहीं सकती। अतः सूत्रकार ने इस विषय में साधक को बहुत सावधान रहने का निर्देश दिया है।
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