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आचारांगभाष्यम
सं०--स स्वयमेव बायुशस्त्रं समारभते, अन्यैः वा वायुशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान् वा वायुशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीते।
कोई साधक स्वयं वायुकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है या करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है । १५६. तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
सं०–तत् तस्य अहिताय, तत् तस्य अबोध्य ।
वह हिंसा उसके अहित के लिए होती है । वह हिंसा उसकी अबोधि के लिए होती है। १५७. से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए।
सं०-स तत् संबुध्यमानः, आदानीयं समुत्थाय ।
वह उस हिंसा के परिणाम को समीचीन दृष्टि से समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है। १५८. सोच्चा भगवओ अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसि णायं भवइ-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस
खलु णिरए। सं०-श्रुत्वा भगवतः अनगाराणां वा अन्तिके इहैकेषां ज्ञातं भवति-एषा ख लु ग्रन्थः, एषा खलु मोहः, एषा खलु मार , एषा खलु नरकः । भगवान् या गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है—यह (वायुकायिक जीवों की हिंसा) प्रन्थि
है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है। १५६. इच्चत्थं गढिए लोए।
सं०-इत्यत्र ग्रथितः लोकः ।
फिर भी सुख-सुविधा में मूच्छित मनुष्य वायुकायिक जीव-निकाय की हिंसा करता है। १६०. जमिणं विरूवरूवेहि सत्यहि वाउकम्म-समारंभेणं वाउ-सत्थं समारंभमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिंसति ।
सं०-यदिदं विरूपरूपः शस्त्रः वायुकर्मसमारम्भेण वायुशस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से वायु-सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर वायुकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल उन वायुकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है ।
१६१. से बेमि-अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे।
सं०-तद् ब्रवीमि-अप्येकः अन्धमाभिन्द्याद्, अप्येकः अन्धमाच्छिन्द्यात् । मैं कहता हूं-वायुकायिक जीव जन्मना इन्द्रियविकल-अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयवहीन मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाला होता है । शस्त्र से छेदन-भेदन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय-विकल मनुष्य को कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वायुकायिक
जीव को होती है। १६२. अप्पेगे पायमन्भे, अप्पेगे पायमच्छे ।
सं०-अप्येकः पादमाभिन्द्या, अप्येकः पादमाच्छिन्द्यात् । इन्द्रिय-सम्पन्न मनुष्य के पर आदि (द्रष्टव्यं ११२९) का शस्त्र से छेदन-भेदन करने पर उसे अक्षम कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वायुकायिक जीव को होती है।
१६३. अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए।
सं०-अयेकः संप्रमारयेद्, अप्येकः उद्भवेत् । मनुष्य को मूच्छित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर उसे कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वायुकायिक जीव को होती है।
भाष्यम् १५३-१६३-एतानि सूत्राणि पूर्ववद् (२०-३०) पूर्ववत् देखें--सूत्र २०-३० । द्रष्टव्यानि।
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