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________________ ७६ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ७. सूत्र १५६-१६६ १६४. से बेमि-संति संपाइमा पाणा, आहच्च संपयंति य । फरिसं च खलु पुट्टा, एगे संघायमावज्जति । जे तत्थ संघायमावज्जंति, ते तत्थ परियावज्जति । जे तत्थ परियावज्जंति, ते तत्थ उद्दायति । सं०. तद् ब्रवीमि-संति संपातिमाः प्राणाः, आहत्य संपतन्ति च । स्पर्श च खलु स्पृष्टाः, एके संघातमापद्यन्ते । ये तत्र संघातमापद्यन्ते, ते तत्र पर्यापद्यन्ते । ये तत्र पर्यापद्यन्ते, ते तत्र अवद्रान्ति । मैं कहता हूं-संपातिम (उड़ने वाले) प्राणी भी होते हैं। वे ऊपर से आकर नीचे गिर जाते हैं। कुछ प्राणी वायु का स्पर्श पाकर संघात को प्राप्त हो जाते हैं । जो प्राणी वायु का स्पर्श पाकर संघात को प्राप्त हो जाते हैं वे उसके स्पर्श से वहां मूच्छित हो जाते हैं । जो उसके स्पर्श से मूच्छित हो जाते हैं वे वहां मर जाते हैं। भाष्यम् १६४-शेष ८५ सूत्रवत्, केवलं अग्निस्थाने शेष ८५ सूत्र की भांति । केवल इतना-सा अन्तर है कि अग्नि के वायोः स्पर्श प्राप्ता इति भावनीयम् । स्थान पर 'वायु का स्पर्श प्राप्त कर' ऐसा जानना चाहिए । १६५. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवंति । सं०--अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भा अपरिज्ञाता भवन्ति । जो वायुकायिक जीव पर शस्त्र का समारंभ (प्रयोग) करता है, वह इन आरम्भों-तत्सम्बन्धी व तदाश्रित जीव-हिंसा की प्रवृत्तियों से बच नहीं पाता है। १६६. एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति।। सं०-अत्र शस्त्र असमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति । जो वायुकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ नहीं करता, वह इन आरम्भों से मुक्त हो जाता है। १६७. तं परिणाय मेहावी व सयं वाउ-सत्थं समारंभेज्जा, णेवणेहि वाउ-सत्थं समारंभावेज्जा, णेवण्णे वाउ-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा । सं०--तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं वायुशस्त्रं समारभेत, नवान्यैः वायुशस्त्रं समारम्भयेत्, नैवान्यान् वायुशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीत। यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं वायुशस्त्र का समारंभ न करे, दूसरों से उसका समारम्भ न करवाए तथा उसका समारम्भ करने वाले दूसरों का अनुमोदन न करे। १६८. जस्सेते वाउ-सत्थ-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुणो परिणाय-कम्मे ।-त्ति बेमि । सं०-यस्यैते वायुशस्त्रसमारम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति, स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा। - इति ब्रवीमि । जिसके वायु सम्बन्धी कर्म-समारम्भ परिजात होते है, वही मुनि परिजातकर्मा (कर्मत्यागी) होता है। -ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् १६५-१६८ --एतानि सूत्राणि पूर्ववद्(३१-३४) पूर्ववत् देखें -सूत्र ३१-३४ । द्रष्टव्यानि । १६९. एत्थं पि जाणे उवादीयमाणा। सं०–अत्रापि जानीहि उपादीयमानान् । इस प्रसंग में तुम जानो, कुछ साधु इन्द्रिय-विषयों से आक्रान्त होते हैं। भाष्यम् १६९–वायुकायिकहिंसां के कुर्वन्ति ? इति- वायुकाय की हिंसा कौन करते हैं-इस जिज्ञासा के उत्तर में जिज्ञासायां निरूपितमिदं-अस्मिन् विषये त्वं जानीयाः, कहा गया है-इस विषय में तुम यह जानो कि जो इन्द्रिय-विषयों से ये इन्द्रियविषयरुपादीयमानाः-आक्रम्यमाणाः सन्ति आक्रान्त हैं, पराभूत हैं, वे ही वायुकाय की हिंसा में प्रवृत्त होते हैं । वे १. आप्टे, उपादा-to Seize, to attack. Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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