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________________ ८० आचारांगभाष्यम् त एव वायुकायहिंसायां प्रवर्तन्ते । ते के सन्तीति प्रश्न- कौन हैं ? इस प्रश्न का उत्तर आगे के सूत्रों में प्राप्त हैस्योत्तरं वक्ष्यमाणसूत्रेषु वर्तते१७०. जे आयारे न रमति । सं०-ये आचारे न रमन्ते । जो आचार में रमण नहीं करते । भाष्यम् १७०--आचारः-कर्मसमारम्भपरिज्ञा । ये आचार का अर्थ है-कर्म-समारंभ की परिज्ञा-विवेक । जो आचारे न रमन्ते ते साताकुलमनसः वायुकायिकहिंसां आचार में रमण नहीं करते वे सुविधा के लिए आकुल-व्याकुल व्यक्ति कुर्वन्ति । वायुकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। १७१. आरंभमाणा विणयं वयंति । सं०-आरभमाणाः विनयं वदन्ति । जो स्वयं आरंभ करते हुए (दूसरों को) आचार का उपदेश देते है। भाष्यम् १७१--विनयः-आचारोऽनुशासनं वा। ये विनय का अर्थ है आचार अथवा अनुशासन । वायुकायजीवानामारम्भसमारम्भं कुर्वाणा अपि विनयं जो स्वयं वायुकाय के जीवों का आरंभ-समारंभ करते हुए भी वदन्ति इति आश्चर्यम् । ये स्वयं वायुकायिकहिंसां विनय का उपदेश देते हैं, यह आश्चर्य की बात है। जो स्वयं वायुकुर्वन्ति तेषां विनयस्य प्रतिपादनं कथं सार्थकं भवेत् ? कायिक जीवों की हिंसा करते हैं, उनका विनय के विषय का प्रतिपादन कैसे सार्थक हो सकता है ? १७२. छंदोवणीया अज्झोववण्णा । सं०-छन्दोपनीताः अध्युपपन्नाः । जो स्वच्छन्दचारी और विषयासक्त होते है। भाष्यम् १७२-छन्दः-साधारणः अभिषङ्गः। छन्द का अर्थ है-विषयों के प्रति सामान्य आसक्ति । अध्युपपन्नाः--विषयेषु तीव्राभिनिवेशमापन्नाः । अध्युपपन्न का अर्थ है-विषयों में तीव्र आसक्ति रखने वाला। ये छन्दोपनीता अध्युपपन्नाश्च सन्ति ते वायुकायिक- जो स्वच्छन्दचारी तथा विषयों में तीव्र आसक्ति रखते हैं हिंसां कुर्वन्ति। वे वायुकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। १७३. आरभसत्ता पकरेंति संगं । सं०-आरम्भसक्ताः प्रकुर्वन्ति सङ्गम् । जो आरम्भ में आसक्त होकर नई-नई आसक्तियों और नये-नये बन्धना को उत्पन्न करते हैं। भाष्यम् १७३--ये आरम्भसक्ताः संग प्रकुर्वन्ति। जो आरंभ में आसक्त होकर संग करते हैं । सङ्गः-रागद्वेषौ बन्धनं वा। संग का अर्थ है-रागद्वेष या बन्धन । 'एत्थं पि जाणे उवादीयमाणा' (सूत्र १६९) इति 'एत्थ पि जाणे उवादीयमाणा' (१६९)- इस सूत्र से प्रस्तुत सूत्र सुत्रात आरभ्य प्रस्तुतसूत्रपर्यन्तं यत् प्रतिपादित तस्य तक जो प्रतिपादित किया गया है, उसका प्रतिपक्ष भी यहां जान लेना प्रतिपक्षोऽप्यत्र भावनीयः, यथा चूणी'-- चाहिए । जैसे चूर्णि में कहा गया है'एत्थवि जाण अणुवाइयमाणा ।' _ 'इस विषय में तुम जानो–जो इन्द्रिय-विषयों से आक्रान्त नहीं होते।' १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ४१-४२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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