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________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ७. सूत्र १७०-१७७ 'जे आयारे रमंति ।' 'अणारंभमाणा विणयं वदंति ।' 'पसत्थछंदोवणीता तत्थेव अज्झोववण्णा ।' 'आरंभ असता णो पगति संग ।' १७४. से वसुमं सम्य-समन्नागव-पण्णाने अप्पानेर्ण अकरणिज्जं पावं कम्म । सं० - स वसुमान् सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेन आत्मना अकरणीयं पापं कर्म । संयमी के लिए सर्वसमन्वागत प्रज्ञायुक्त आत्मा से पापकर्म अकरणीय है । भाष्यम् १७४ - प्रज्ञानम् - प्रज्ञा । सर्वसमन्वागतमिति सर्वविषयग्राहि सत्यविषयग्राहि वा वसुमान् संयमी तादृशस्व साधकस्य सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेन आत्मना पापं कर्म अकरणीयं भवति । यस्मिन् सर्वविषयग्राहिणी सत्वविषयग्राहिणी वा प्रज्ञा उदिता भवति स एव पापं कर्म अकरणीयं मन्यते । १७५ तं णो असि । सं० - तत् न अन्विष्येत् । संयमी उस पापकर्म का अन्वेषण न करे । भाष्यम् १७५ - पूर्वस्मिन् सूत्रे पाप कर्म अकरणीयं' इति निर्दिष्टम् । प्रस्तुतसूत्रे तत् पापं कर्म नान्वेषणीयं इति निर्देशः कृतः । पापकर्मणः अन्वेषणं कर्मविपाक सम्भवं विद्यते । तेन पापकर्मणो विनोदाय प्रयत्नमानेन पुरुषेण भावविशुद्धेः प्रयोगः कर्त्तव्यः । सा भावविशुद्धि: पापकर्मान्वेषणस्य हेतुभूतां कर्मप्रकृति विपाकाक्षमां करिष्यति । 'जो आचार में रमण करते हैं ।' 'जो आरंभ - समारंभ से उपरत होकर विनय का उपदेश देते हैं ।' 'जो प्रशस्त छंद को प्राप्त और उसी में अध्युपपन्न होते हैं ।' 'जो आरंभ में अनासक्त रहते हुए संग नहीं करते ।' १. प्रवृत्ति का मुख्य स्रोत अन्तःकरण है। वह प्रज्ञा से संचासित होता है। उसके नियामक तत्व दो है मोह और निर्मोह मोह से नियंत्रित प्रज्ञा असत्य होती है— धर्म के विपरीत होती है। निर्मोह से नियंत्रित प्रज्ञा सत्य होती है-धर्म के अनुकूल होती है जिसकी प्रज्ञा सत्य होती है, वह शरीर, वाणी और भाव से ऋजु तथा कथनी और 1 ८१ 1 प्रज्ञान का अर्थ है - प्रज्ञा । सर्वसमन्वागत का अर्थ है - सब विषयों को ग्रहण करने वाला अथवा सत्य विषय को ग्रहण करने वाला प्रज्ञान वसुमान् का अर्थ है-संयमी वैसे साधक के लिए सर्वसमन्यागत प्रज्ञावाली आत्मा से पापकर्म करणीय होता है। जिसमें सर्वविषयग्राही या सत्यविषयग्राही प्रता का उदय होता है, वही पापकर्म को अकरणीय मानता है । १७६. तं परिणाय मेहावी शेव सयं छन्नीय निकाय सत्य समारंभेज्जा, जेवणेहि सम्जीव णिकाय सत्यं समारंभावेम्जा, णेवणे जीव-निकाय सत्यं समारंभंते समजानेजा । Jain Education International इससे पूर्व के सूत्र में पापकर्म अकरणीय है' ऐसा निर्दिष्ट है। प्रस्तुत सूत्र में 'उस पापकर्म का अन्वेषण न करे ऐसा निर्देश है। पापकर्म का अन्वेषण कर्म विपाक से संभव होता है। इसलिए जो मनुष्य पापकर्म को दूर करना चाहता है, उसे भावविशुद्धि का प्रयोग करना चाहिए। वह भावविशुद्धि पापकर्म के अन्वेषण में हेतुभूत कर्मप्रकृति के विपाक को अक्षम बना डालती है । सं० तं परिज्ञाय मेघावी मैव स्वयं षड्जीवनिकायाशस्त्रं समारभेत नेवाः षड्जीवनिकायशस्त्रं समारम्भयेनैवान्यान् पजीवनिकाय समारभमाणान् समनुजानीत | 7 यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं छह जीवनिकायशस्त्र का समारम्भ न करे, दूसरों से उसका समारम्भ न करवाए तथा उसका समारम्भ करने वाले दूसरों का अनुमोदन न करे । १७७. जस्सेते छन्नीवणिकाय सत्य-समारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिष्णाय कम्मे । —त्ति बेमि । करनी में समान होता है। इस प्रकार की सत्यप्रज्ञा से संचालित अन्तःकरण ही हिंसा और विषय से विरत हो सकता है । कोई भी साधक केवल बाह्याचार से हिंसा और विषय से विरत नहीं हो सकता । पूर्ण सत्यप्रज्ञायुक्त अन्तःकरण से ही वह उनसे विरत हो सकता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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