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अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ०५. सूत्र ६७-१०१ प्रतिपादकं जिनवचनमागम इति यावत् । न आज्ञा- के प्रतिपादक जिनवचन-आगम । आज्ञा का न होना अनाज्ञा है। जो अनाज्ञा। यः कामगुणवशवर्ती सन् वनस्पतिजीवान् कामगुणों का वशवर्ती होकर वनस्पति जीवों की हिंसा करता है, वह हिनस्ति सोऽनाज्ञायां वर्तते, अतीन्द्रियविषयानभिज्ञोऽ- अनाज्ञा में है, वह अतीन्द्रिय विषयों से अनभिज्ञ है। स्तीति यावत् । १८. पुणो-पुणो गुणासाए, वंकसमायारे, पमत्ते गारमावसे ।
सं०-पुनः पुनः गुणास्वादः, वक्रसमाचारः, प्रमत्तोऽगारमावसति । जो बार-बार विषयों का आस्वाद करता है, जिसका आचरण वक्र-असंयममय होता है और जो प्रमत्त होता है, वह गृहत्यागी होकर भी गृहवासी होता है।
भाष्यम् ९८--यः पुनः पुनर्गणान् --इन्द्रियविषयान जो बार-बार गुणों अर्थात् इंद्रिय विषयों का आस्वाद लेता है, आस्वदते, असंयम समाचरति, प्रमत्तो भवति, स पुरुषो असंयम का आचरण करता है, प्रमत्त होता है, वह पुरुष गृहत्यागी गृहत्यागी भूत्वाऽपि वस्तुतः अगारमावसति ।
होकर भी वस्तुतः गृहवासी है। __वक्रः-असंयमः। आगमपरिभाषायां ऋजू:--संयमो वक्र का अर्थ है- असंयम । आगम की परिभाषा में ऋजु का मोक्षो वा, वक्र:-असंयमः संसारो वा।
अर्थ है-संयम या मोक्ष और वक्र का अर्थ है-असंयम या संसार । वनस्पतिरसास्वादे गद्धस्य गहत्यागिनः कथं भावतः जो अनगार वनस्पति के रसास्वादन में आसक्त होता है, वह अगारवासित्वं भवतीति निशीथभाष्ये निदर्शितमस्ति। वास्तव में गृहवासी होता है, यह तथ्य निशीथभाष्य में स्पष्टरूप से
प्रतिपादित है।
६६. लज्जमाणा पुढो पास । सं०-लज्जमानान् पृथक् पश्य ।
तू देख, प्रत्येक संयमी साधक हिंसा से विरत हो संयम का जीवन जी रहा है। १००. अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा।
सं०-अनगाराः स्मः इति एके प्रवदन्तः । और तू देख, कुछ साधु 'हम गृहत्यागी हैं'-यह निरूपित करते हुए भी गृहवासी जैसा आचरण करते हैं-बनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। भाष्यम् ९९-१००-सूत्रद्वयं पूर्ववत् (१७-१८) पूर्ववत् देखें-सूत्र १७-१८ । ज्ञातव्यम् । १०१. जमिण विरूवरूवेहि सत्थेहिं वणस्सइ-कम्म-समारंभेणं वणस्सइ-सत्थं समारंभमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे
विहिंसति ।
१. निशीथभाष्य, गाया ४७९१-४७९२ :
कायं परिच्चयंतो, सेसे काए वए य सो चयति । णाणी णाणुवदेसे, अवट्टमाणो उ अन्नाणी ॥ दसणचरणा मूढस्स णत्थि समता वा पत्थि सम्मं तु।
विरतोलक्खणचरणं, तदभावे णत्थि वा तं तु ॥ चौं-'पलंबे गेण्हतेण वणस्सतिकाओ परिच्चत्तो, वणस्सतिकायपरिच्चागेण, सेसा वि काया परिच्चत्ता, एवं छक्कायपरिच्चागे पढमवयं परिच्चत्तं, तस्स य परिच्चागे, सेस वया वि परिच्चत्ता । एवं अवती भवति ।
जहा अण्णाणी गाणभावतो णाणुवदेसे ण वट्टति, एवं णाणी वि णाणुबदेसे अवतो णिच्छयतो णाणफलाभावाओ अण्णाणी चेव। णाणाभावे मूढो भवति, मूढस्स य दंसणचरणा ण भवंति । अधवा-जेण जीवेसु समता णरिथ, पलंबगहणातो, तेण सम्मत्तं णस्थि। विरतिलक्खणं चारित्तं भणियं, तं च पलंबे गेण्हतस्स लक्खणं ण भवति, 'तवमावे' ति लक्खणाभावे चारितं त्थि ।'
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