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________________ आचारांगभाष्यम् सं०-यदिदं विरूपरूपैः शस्त्र: वनस्पतिकर्मसमारंभेण वनस्पतिशस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से वनस्पति-सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल उन वनस्पतिकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है। भाष्यम् १०१-निर्यक्तौ' वनस्पतिकायशस्त्राणि एवं नियुक्ति में वनस्पतिकाय के शस्त्र इस प्रकार प्रतिपादित हुए हैंप्रतिपादितानि १. कल्पनी, कुठारी, दात्रं, दात्रिका, कुद्दालक, वासी, १. कैची, कुठारी, हंसिया, छोटी हंसिया, कुदाली, वसूला और परशुश्च । फरसा। २. हस्तपादमुखादयः। २. हाथ, पैर, मुंह आदि। ३. स्वकायशस्त्रम्-लकुटादयः । ३. स्वकायशस्त्र-लाठी आदि । ४. परकायशस्त्रम्-पाषाणाग्न्यादयः । ४. परकायशस्त्र—पाषाण, अग्नि आदि । ५. तदुभयशस्त्रम् -कुठारादयः । ५. तदुभयशस्त्र-कुठार आदि । ६. भावशस्त्रम् - असंयमः । ६. भावशस्त्र-असंयम । १०२. तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिता। सं०-तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा (विवेक) का निरूपण किया है। १०३. इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाती-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिधायहे। सं०-अस्मै चैव जीविताय, परिवंदन-मानन-पूजनाय, जाति-मरण मोचनाय, दुःखप्रतिघातहेतुम् । वर्तमान जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए, दुःख-प्रतिकार के लिए। १०४. से सयमेव वणस्सइ-सत्थं समारंभइ, अण्णेहि वा वणस्सइ-सत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा वणस्सइ-सत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ। सं०–स स्वयमेव वनस्पतिशस्त्रं समारभते, अन्यः वा वनस्पतिशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान् वा वनस्पतिशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीते। कोई साधक स्वयं वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है या करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है। १०५. तं से अहियाए, तं से अबोहीए। _ सं०-तत् तस्य अहिताय, तत् तस्य अबोध्य । वह हिंसा उसके भहित के लिए होती है, वह हिंसा उसकी अबोधि के लिए होती है। १०६. से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए। सं०-स तत् संबुध्यमानः आदानीयं समुत्थाय । वह उस हिंसा के परिणाम को समीचीन दृष्टि से समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है। १. आचारांग नियुक्ति, गाथा १४९-१५० : कप्पणिकुहाणिअसियगदत्तियकुद्दालवासिपरसू अ। सत्यं वणस्सईए हत्था पाया मुहं अग्गी ॥ किंची सकायसत्थं किंची परकाय तदुभयं किंची। एयं तु दण्वसत्थं भावे य असंजमो सत्थं ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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