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________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ५. सूत्र १०२-११३ १०७. सोच्चा भगवओ अणगाराणं वा अतिए इहमेगेसि णायं भवति-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए। सं०--श्रुत्वा भगवतः अनगाराणां वा अंतिके इहेकेषां ज्ञातं भवति--एषा खलु ग्रन्थः, एषा खलु मोहः, एषा खलु मारः, एषा खलु नरकः । भगवान् या गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है-यह (वनस्पतिकायिक जीवां की हिसा) ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है । १०८. इच्चत्थं गढिए लोए। सं०-इत्यत्र ग्रथितो लोकः । फिर भी सुख-सुविधा में मूच्छित मनुष्य वनस्पतिकायिक जीव-निकाय को हिंसा करता है। १०६. जमिणं विरूबरूवेहि सत्थेहि वणस्सइ-कम्म-समारंभेणं वणस्सइ-सत्थं समारंभेमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिसति । सं०-यदिदं विरूपरूपः शस्त्रः वनस्पतिकर्मसमारंभेण वनस्पतिशस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से वनस्पति सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल उन वनस्पतिकायिक जीवों को ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों को भी हिंसा करता है। ११०. से बेमि-अप्पेगे अंधमन्भे, अप्पेगे अंधमच्छे। सं०-तद् ब्रवीमि-अप्येकः अन्धमाभिन्द्याद्, अप्येकः अन्धमाच्छिन्द्याद् । मैं कहता हूं-वनस्पतिकायिक जीव जन्मना इन्द्रियविकल-अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयवहीन मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतमा वाला होता है। शस्त्र से छेवन-भेवन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय-विकल मनुष्य को कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वनस्पतिकायिक जीव को होती है। १११. अप्पेगे पायमन्भे, अप्पेगे पायमल्छ । सं०-अप्येकः पादमाभिन्द्याद्, अप्येकः पादमाच्छिन्द्यात् । इन्द्रिय-सम्पन्न मनुष्य के पैर आदि (द्रष्टव्यं १।२९) का शस्त्र से छेदन-भेदन करने पर उसे अक्षम कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वनस्पतिकायिक जीव को होती है। ११२. अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए । सं0-अप्येकः संप्रमारयेद्, अप्येकः उद्भवेत् । मनुष्य को मूच्छित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर उसे कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वनस्पतिकायिक जोब को होती है। भाष्यम् १०२-११२-एतानि सूत्राणि पूर्ववद् (२०-३०) पूर्ववत् देखें-सूत्र २०-३० । ज्ञातव्यानि । ११३. से बेमि-इमपि जाइधम्मयं, एयंपि जाइधम्मयं । इमंपि बुड्डिधम्मयं, एयंपि बुद्धिधम्मयं । इमंपि चित्तमंतयं, एयंपि चित्तमंतयं । इमंपि छिन्नं मिलाति, एयंपि छिन्नं मिलाति । इमंपि आहारगं, एयंपि आहारगं । इमंपि अणिच्चयं, एयंपि अणिच्चयं । इमंपि असासयं, एयपि असासयं । इमंपि चयावच इयं, एयंपि चयावचइयं । इमंपि विपरिणाम. धम्मयं, एयंपि विपरिणामधम्मयं । सं०-तद् ब्रवीमि- इदमपि जातिधर्मक, एतदपि जातिधर्मकम् । इदमपि वृद्धिधर्मक, एताप वृद्धिधर्मकम् । इदमपि चित्तवत्कं, एतदपि चित्तवत्कम् । इदमपि छिन्नं म्लायति, एतदपि छिन्नं म्लायति । इदमपि बाहारकं, एतदपि आहारकम् । इदमपि अनित्यक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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