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आचारांगभाष्यम्
एतदपि अनित्यकम् । इदमपि अशाश्वतं, एतदपि अशाश्वतम् । इदमपि चयापचयिकं, एतदपि चयापचयिकम् । इदमपि विपरिणामधर्मकं, एतदपि विपरिणामधर्मकम् । मैं कहता हूं-यह मनुष्य-शरीर भी जन्मता है, यह वनस्पति भी जन्मती है। यह मनुष्य-शरीर भी बढता है, यह वनस्पति भी बढती है। यह मनुष्य-शरीर भी चैतन्ययुक्त है, यह वनस्पति भी चैतन्ययुक्त है। यह मनुष्य-शरीर भी छिन्न होने पर म्लान होता है, यह वनस्पति भी छिन्न होने पर म्लान होती है । यह मनुष्य-शरीर भी आहार करता है, यह बनस्पति भी आहार करती है। यह मनुष्य-शरीर भी अनित्य है, यह वनस्पति भी अनित्य है। यह मनुष्य-शरीर भी अशाश्वत है, यह वनस्पति भी अशाश्वत है। यह मनुष्य-शरीर भी उपचित और अपचित होता है, यह वनस्पति भी उपचित और अपचित होती है। यह मनुष्य-शरीर भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होता है, यह वनस्पति भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होती है।
भाष्यम ११३-स्थावरकायेषु बनस्पतिकायिकजीवा स्थावरकायिक जीवों में बनस्पतिकायिक जीवों की चेतना व्यक्तचैतन्यलक्षणा वर्तन्ते । पृथिव्यादिषु चैतन्यं अत्यधिक स्पष्ट होती है। पृथ्वी आदि में वनस्पति की तरह चैतन्य वनस्पतिवद् व्यक्तं नास्ति । तेन न तेषां मनुष्यशरीरेण स्पष्ट नहीं होता। इसलिए मानव शरीर के साथ उनकी तुलना नहीं सह तुलना कृता। वनस्पतिजीवानां तुलना सर्वाङ्गीण- की गई है। मनुष्य शरीर के साथ वनस्पति जीवों की तुलना सर्वाङ्गीण रूपेण जायते । जन्म-वृद्धि-भोजन-चयापचय-मरण-रोग- रूप से होती है। जन्म, वृद्धि, भोजन, चयापचय, मरण, रोग, बाल बालाद्यवस्था-चैतन्यप्रभृतानि लक्षणानि प्रत्यक्षीभूतानि आदि अवस्था और चैतन्य आदि साक्षात् दृश्यमान लक्षणों का यहा अत्र विवृतानि।
विवरण दिया गया है१. यथा मनुष्यशरीरं जन्मधर्मकं विद्यते, तथा १. जैसे मनुष्य का शरीर जन्म-धर्मा है, वैसे ही वनस्पति का वनस्पतिशरीरमपि जन्मधर्मकम् ।
शरीर भी जन्म-धर्मा है। २. यथा मनुष्यशरीरं वर्धते, तथा वनस्पतिशरीर- २. जैसे मनुष्य का शरीर बढता है, वैसे ही वनस्पति का शरीर मपि ।
भी बढ़ता है। ३. यथा मनुष्यशरीरं चित्तवत्-ज्ञानेनानुगतं, तथा ३. जैसे मनुष्य का शरीर चित्तवान्–ज्ञानयुक्त होता है वैसे ही
वनस्पतिशरीरमपि । धात्रीप्रपून्नाटादीनां स्वाप- वनस्पति का शरीर भी ज्ञानयुक्त होता है। आंवले के पेड़, विबोधसद्भावो दृश्यते ।' |
चकवंड (चक्रमर्द) के पौधे आदि में नींद और जागरण का
अस्तित्व दृष्टिगोचर होता है। अस्मिन् विषये आधुनिकवैज्ञानिकानां मतं बोद्ध इस विषय में आधुनिक वैज्ञानिकों का मत जानने के लिए 'सीक्रेट लाइफ ऑफ दी प्लान्टस्' इतिनामा ग्रन्थः 'सीक्रेट लाइफ ऑफ द प्लांटस्' यह ग्रंथ देखना चाहिए।
द्रष्टव्यः । ४. यथा मनुष्यशरीरस्य हस्ताद्यवयवाः छिन्नाः सन्तः ४. जैसे मानव शरीर के हाथ आदि अवयव छिन्न होने पर म्लान
म्लायन्ति-क्रमशः निर्जीवतां गच्छन्ति, तथा होते हैं- क्रमशः निर्जीव हो जाते हैं, वैसे ही वनस्पति के भी वनस्पतेरपि शाखापुष्पपत्राद्यवयवाः छिन्नाः सन्तः शाखा, फूल, पत्ते आदि अवयव छिन्न होने पर म्लान होते म्लायन्ति-मूलशरीरात् पृथग्भूतानामवयवानां हैं-मूल शरीर से पृथक् हुए अवयवों का आभामण्डल क्रमशः आभामण्डलं क्रमश: क्षीणतां गच्छति, तस्मिन् क्षीणे क्षीण होता चला जाता है। उसके क्षीण होने पर मृत्यु हो मृत्युर्जायते।
जाती है। ५. यथा मनुष्यशरीरं आहरति, तथा वनस्पति शरीर- ५. जैसे मनुष्य का शरीर आहार लेता है वैसे ही वनस्पति का
मपि भूजलाद्याहरति । द्वयोरपि पाचनं प्रकाश- शरीर भी पृथ्वी, जल आदि का आहार ग्रहण करता है । दोनों सापेक्षं वर्तते।
में पाचनक्रिया प्रकाश-सापेक्ष है। १. वृत्तिकारेण अन्या अपि युक्तयः उपनताः-'तथाऽधोनिखात
सुरागण्डूषसेकाद् बकुलस्य स्पृष्टप्ररोहिकादीनाञ्च द्रविणराशेः स्वप्ररोहणावेष्टनं प्रावड्जलधरनिनादशिशिर
हस्तादिसंस्पर्शात् संकोचादिका परिस्फुटा क्रियोपलब्धिः, न वायुसंस्पर्शाद अंकुरोभेदः, तथा मदमदनसङ्गस्खलद्गति
चैतदभिहिततरुसम्बन्धि क्रियाजालं ज्ञानमन्तरेण घटते, विधर्णमानलोललोचनविलासिनीसन्न पुरसुकुमारचरणताड
तस्मात् सिद्ध चित्तवत्त्वं वनस्पतेरिति ॥' नावशोकतरोः पल्लवकुसुमोद्गमः, . तथा सुरभि
(आचारांग वृत्ति, पत्र ५९)
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