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अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ५. सूत्र ११४-११५ ६. यथा मनुष्यशरीरं अनित्यं -हानिवृद्धियुक्तं वर्तते, तथा वनस्पतिशरीरमपि।।
७. यथा मनुष्यशरीरं अशाश्वत-मरणधर्मकं विद्यते,
तथा वनस्पतिशरीरमपि । ८. यथा मनुष्यशरीरं चयापचयिक विद्यते--प्रतिक्षणं कोटिशः कोशिका उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते च, तथ। वनस्पतिशरीरमपि चयापचयिकम् । तस्मिन्नपि कोशिकानामुत्पादो व्ययो वा दृश्यते । ९. यथा मनूष्यशरीरं विपरिणामधर्मक विद्यते तथा वनस्पतिशरीरमपि । विपरिणामः
६. जैसे मनुष्य का शरीर अनित्य अर्थात् हानि-वृद्धि युक्त होता है, वैसे ही बनस्पति का शरीर भी अनित्य है, हानि-वृद्धि युक्त
है। ७. जैसे मनुष्य का शरीर अशाश्वत अर्थात् मरणधर्मा है, वैसे ही
वनस्पति का शरीर भी अशाश्वत है, मरणधर्मा है। ८. जैसे मनुष्य का शरीर चयापचय-धर्मा है अर्थात् उसमें प्रतिक्षण करोड़ों कोशिकाएं उत्पन्न होती है, नष्ट होती हैं, वैसे ही वनस्पति का शरीर भी चयापचय-धर्मा है। उसमें भी
कोशिकाओं की उत्पत्ति और विनाश देखा जाता है । ९. जैसे मनुष्य का शरीर विपरिणामधर्मा है, वैसे ही वनस्पति का
शरीर भी विपरिणामधर्मा होता है। विपरिणाम के तीन अर्थ
१. निषेकादिबालाद्यवस्थान्तरसंक्रमणम् ।
१. निषेक (गर्भ-निषेचन), बाल, युवा आदि अवस्थाओं में
संक्रमण । २. रोगोद्भवः ।
२. रोग की उत्पत्ति। ३. रसायनस्नेहाद्युपयोगाद् विशिष्टकान्तिबलोप- .. ३. रसायन, स्नेह आदि के उपयोग से विशिष्ट कांति, बल चयादिरूपः।
का उपचय आदि। चर्णिकारेण सूचितमिदं एवं अन्येऽपि स्वप्नदोहद- चूर्णिकार ने यह सूचित किया है-इस प्रकार स्वप्न, दोहद रोगादिलक्षणाः पर्यायाः वाच्याः ।' वृत्तिकारेण वनस्पते: (गर्भकाल में होने वाली इच्छा) रोग आदि अन्य लक्षण भी वनस्पति स्वप्नविषये न किञ्चिदुल्लिखितम् । दोहदविषये में पाए जाते हैं । वृत्तिकार ने वनस्पति के स्वप्न के विषय में कुछ भी इत्युल्लेखो लभ्यते-दोहदप्रदानेन तत्पूा वा पुष्पफला- उल्लेख नहीं किया है। दोहद के विषय में यह उल्लेख मिलता हैदीनामुपचयो जायते । इदानींतनी धान्यादिवृद्धिः स्पष्टं वृक्षों में इच्छा उत्पन्न करने अथवा उनमें उत्पन्न इच्छा को सिंचन देने परिदृश्यमानास्ति । वनस्पतेः स्वप्नदोहदविषयः इदानी- अथवा उनके दोहद की पूर्ति करने से फूल, फल आदि का उपचय होता मपि गहनगवेषणामपेक्षते ।
है। वर्तमान में इस विधि से धान्य आदि की वृद्धि स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। वनस्पति के स्वप्न तथा दोहद के विषय में अभी भी सघन
गवेषणा अपेक्षित है। ११४. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवंति ।
सं०-अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भा अपरिज्ञाता भवन्ति । जो वनस्पतिकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ (प्रयोग) करता है, वह इन आरंभों तत्संबंधी व तदाश्रित जीवहिंसा की प्रवृत्तियों
से बच नहीं पाता। ११५. एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवति ।
सं....अत्र शस्त्रं असमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति । जो वनस्पतिकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ नहीं करता, वह इन आरंभों से बच जाता है।
१. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३५ । २. (क) आचारांग वृत्ति, पत्र ६० । (ख) आप्टे, 'दोहद':
The desire of plants at budding-time, (as, for instance, of the Asoka to be
kicked by young ladies, of the Bakula to be sprinkled by mouthfuls of liquor etc.)
महील्हा दोहदसेकशक्तेराकालिक कोरकमुगिरन्ति (नैषधचरितम् ३।२१)।
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