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________________ आचारांगभाष्यम् ११६. त परिणाय मेहावी व सयं वणस्सइ-सत्थं समारंभेज्जा, वण्णेहिं वणस्सइ-सत्थं समारंभावेज्जा, णेवणे वणस्सइ-सत्यं समारंभंते समणुजाणेज्जा । सं०-तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं वनस्पतिशस्त्रं समारभेत, नैव अन्यैः वनस्पतिशस्त्रं समारम्भयेत्, नैव अन्यान् वनस्पतिशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीत । यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं वनस्पतिशस्त्र का समारम्भ न करे, दूसरों से उसका समारम्भ न करवाए, उसका समारम्भ करने वाले दूसरों का अनुमोदन न करे। ११७. जस्सेते वणस्सइ-सत्थ-समारंभा परिणाया भवंति, से ह मणी परिण्णाय-कम्मे ।-त्ति बेमि। सं०-यस्यैते बनस्पतिशस्त्रसमारंभाः परिज्ञाताः भवन्ति, स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा । -इति ब्रवीमि । जिसके वनस्पति सम्बन्धी शस्त्र-समारम्भ परिजात होते हैं, वही मुनि परिजातकर्मा (कर्म-त्यागी) होता है। ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ११४-११७-एतानि सूत्राणि पूर्ववद् (३१-३४) पूर्ववत् देखें-सूत्र ३१-३४ । ज्ञातव्यानि । छट्ठो उद्देसो : छठा उद्देशक ११८. से बेमि–संतिमे तसा पाणा, तं जहा-अंडया पोयया जराउया रसया संसेयया संमुच्छिमा उम्भिया ओववाइया। सं०-अथ ब्रवीमि-सन्तीमे त्रसा: प्राणाः, तद् यथा-अण्डजाः, पोतजा: जरायुजाः, रसजा:, संस्वेदजाः, संमूच्छिमाः उद्भिदः औपपातिका: । मैं कहता हूं-ये प्राणी त्रस हैं, जैसे-अंडज, पोतज, जरायुज , रसज, संस्वेदज, सम्मूच्छिम, उद्भिज्ज और औपपातिक। भाष्यम् ११८-प्रस्तुतसूत्रे त्रसजीवानां संग्रहः प्रस्तुत सूत्र में त्रसजीवों का संग्रह किया गया है । वे तीन कृतोऽस्ति । ते त्रिविधा भवन्ति-१. सम्मूर्च्छनजाः, २. प्रकार के हैं-१. सम्मूर्छनज, २. गर्भज, ३. औपपातिक । रसज , गर्भजाः, ३. औपपातिकाश्च । रसजाः, संस्वेदजाः, उद्धि- संस्वेदज और उद्भिद्-ये तीन सम्मूर्छनज हैं। सम्मूर्छन का अर्थ दश्चते सम्मूर्च्छनजाः। सम्मूर्छन -गर्भाधानं विना है-गर्भाधान के बिना ही यत्र-तत्र आहार ग्रहण कर शरीर का निर्माण यत्र तत्रैव आहारं गहीत्वा शरीरसम्पादनं, तस्माज्जाता: करना । इस विधि से उत्पन्न होने वाले प्राणी 'सम्मूर्छनज' कहलाते सम्मूर्छनजाः । अण्डजाः, पोतजा:, जरायुजाश्चैते गर्भजाः। हैं । अण्डज, पोतज और जरायुज-ये गर्भज हैं। उपपातः--वैक्रियशरीरेण उपपतनं-जन्मग्रहणं, तत्र उपपात-वैक्रिय शरीर से उपपतन अर्थात् जन्म ग्रहण करना। १. अण्डज-अण्डों से उत्पन्न होने वाले मयूर आदि । पोतज-पोत का अर्थ है शिशु। जो शिशुरूप में उत्पन्न होते हैं, जिन पर कोई आवरण लिपटा हुआ नहीं होता, वे पोतज कहलाते हैं। हाथी, चर्म जलौका आदि पोतज प्राणी हैं। जरायुज-जरायु का अर्थ गर्भ-वेष्टन या वह झिल्ली है, जो शिशु को आवृत किए रहती है । जन्म के समय में जो जरायु-वेष्टित दशा में उत्पन्न होते हैं, वे जरायुज कहलाते हैं। भैंस, गाय आदि । रसज-छाछ, वही आदि रसों में उत्पन्न होने वाले सूक्ष्म शरीरी जीव । संस्वे बज-पसीने से उत्पन्न होने वाले खटमल, यूका (जू) आदि जीव। औपपातिक-उपपात का अर्थ है-अचानक घटित होने वाली घटना । देवता और नारकीय जीव एक मुहूर्त के भीतर ही पूर्ण युवा बन जाते हैं, इसीलिए इन्हें औपपातिक--अकस्मात् उत्पन्न होने वाले कहा जाता है । (आचारांग वृत्ति, पत्र ६२) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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