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________________ अ०] १. शस्त्रपरिज्ञा ३०५६. सूत्र ११६-१२२ भवा औपपातिका देवा नारकाश्च । ११. एस संसारेति पवृच्छति । सं०- एष संसार इति प्रोच्यते । यह जसलोक संसार कहलाता है ।" भाष्यम् ११९ - सकायजीवा एव संसरणशीला गतिमन्तश्च । अतः तत्सम्बन्धी लोकः संसार इत्युच्यते । १२०. मंदस्स अवियाणओ । सं० - मन्दस्य अविजानतः । यह संसार मंद और अज्ञानी को भी विदित होता है । भाष्यम् १२० - मन्दः – अल्पमतियुक्तः । मन्दमतियुक्तत्वात् स सूक्ष्मसत्यानभिज्ञः । तथापि तस्य मन्दमतेरजानिनश्चापि एष त्रसात्मकसंसारः सुविदितो भवति स्थावरजीवकाय वज्जीवत्वस्य तद्वेदनायाश्च कश्चित् सन्देहः समुत्पद्यते । । नात्र भाष्यम् १२१ परिनिर्वाणं सुखम् । 'सातंति वा सुहंति वा अभयंति वा परिणिव्वाणंति वा एगट्ठा' इति चूर्णि: । ' अत्र इष्टपदं अध्याहार्यम् । प्रत्येकस्य प्राणिनः परिनिर्वाणमिष्टमस्ति इतिनिध्याय-- संप्रेक्ष्य, प्रतिलेख्यसम्यन् विमृश्य, हिसातो विरमणं कार्यम् । १२१. साइल पडिलेहिता पत्तेयं परिणिव्यानं । सं० निष्यय प्रतिलेख्य प्रत्येक परिनिर्वाणम् । प्रत्येक प्राणी को सुख इष्ट है, यह देखकर और जानकर तुम हिंसा से विरत होओ। ६६ उपपात से जन्म लेने वाले देव और नारक औपपातिक कहलाते हैं । सकाय के जीव ही संसरणशील और गतिमान् होते हैं, इसलिए उनसे संबंधित लोक को संसार कहा जाता है । १. लोक को संसार कहने के दो हेतु हो सकते हैं- परि भ्रमणात्मक जगत्, गत्यात्मक जगत् । इस अष्टविध योनिसंग्रह में जो परिभ्रमण करते हैं, इसलिए वह संसार है। मंद का अर्थ है - अल्पबुद्धि वाला। मंद मतिवाला व्यक्ति सूक्ष्म सत्य से अजान होता है । फिर भी यह त्रसात्मक संसार मंदमति और अज्ञानी को भी सुविदित होता है । स्थावर जीवकाय की तरह इसके जीवत्व और वेदना के विषय में कोई संदेह उत्पन्न नहीं होता । Jain Education International परिनिर्वाण का अर्थ है - सुख । चूर्णिकार के अनुसार सात, सुख, अभय और परिनिर्वाण – ये एकार्थक हैं । १२२. सव्वेसि पाणणं सव्वेसि भूयाणं सव्वेसि जीवाणं सव्र्व्वेस सत्ताणं अस्सायं अपरिणिव्वाणं महत्भयं दुक्खं ति बेमि । सं० सर्वेषां प्राणानां सर्वेषां भूतानां सर्वेषां जीवानां सर्वेषां सत्त्वानां असतं अपरिनिर्वाणं महाभयं दुःखं इति ब्रवीमि । सब प्राणी, भूत, जीव और सत्यों के लिए अपरिनिर्वाण (अशांति) अप्रिय, महाभयंकर और दुःख है ऐसा मैं कहता है। यहां 'इष्ट' पद अध्याहार्य है। प्रत्येक प्राणी को परिनिर्वाण इष्ट होता है, यह देखकर और सम्यग् विचार कर हिंसा से विरत होना चाहिए। भाष्यम् १२२ – सर्व प्राणभूतजीवसत्त्वानामपरिसब प्राण, भूत, जीव और सत्वों को अपरिनिर्वाण - अशांति निर्वाणमनिष्टमस्तीति निध्याय-संप्रेक्ष्य, हिंसातो विर- इष्ट नहीं होती, यह देखकर हिंसा से विरत होना चाहिए । मणं कार्यम् । , असा, अपरिनिर्वाण, महाभयं दुःखं इति एकार्यका साक्षात् सूत्र एवं निर्दिष्टाः । असात, अपरिनिर्वाण, महाभय और दु:ख-ये एकार्थक हैं। सूत्र में इनका स्पष्ट निर्देश है । इस योनि-संग्रह में उत्पन्न जीव हो गतिमान् होते है, अतः वह संसार है। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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