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________________ ७० आचारांगभाष्यम् प्राण-आन-प्राण लेता है, इसलिए प्राण कहलाता है। भूत-था, है और होगा, इसलिए भूत कहलाता है। प्राणः-यस्माद् अनिति प्राणिति तेन प्राण इत्युच्यते । भूतः- यस्माद् भूतः भवति भविष्यति च तस्माद् भूत इत्युच्यते । जीवः--यस्मात् जीवत्वमायुष्कञ्च कर्मोपजीवति तस्मात् जीव इत्युच्यते। ___ सत्त्वः-सत्त्वं-सत्ता। यस्मात शूभाशुभैः कर्मभिः सत्त्वमस्ति यस्य, तस्मात् सत्त्व इत्युच्यते।' जीव-जो जीवत्व और आयुष्यकर्म का उपजीवी है, वह जीव कहलाता है। सत्व-सत्व का अर्थ है-सत्ता । आत्मा की शुभ-अशुभ कर्म से दैहिक अथवा वैभाविक सत्ता निर्मित होती है, इसलिए वह सत्त्व कहलाता है। १२३. तसंति पाणा पदिसोदिसासु य । सं०-त्रस्यन्ति प्राणाः प्रदिशादिशासु च । दुःख से अभिभूत प्राणी दिशाओं और विदिशाओं में सब ओर से भयभीत रहते हैं। भाष्यम् १२३ --अस्ति येषु जीवेषु आगतिगतिविज्ञानं जिन जीवों में आगति-गति-आने-जाने का ज्ञान है, वे त्रस हैं। ते त्रसाः। तथा ये त्रस्यन्ति, उद्विजन्ति, संकुचन्ति, और जो संत्रस्त होते हैं, उद्विग्न होते हैं, संकुचित होते हैं, डरते हैं तथा बिभ्यति च, एतास् त्रासाद्यवस्था इतस्तत: पलायनं त्रास आदि अवस्थाओं में जो इधर-उधर पलायन करते हैं, यह भी कुर्वन्ति, एतदपि त्रसजीवानां लक्षणम् ।' त्रसजीवों का एक लक्षण है। प्रस्तुत पुत्रस्य ऐदंपर्यमिदं... त्रसा: प्राणा दिशासु अनु- प्रस्तुत सूत्र का तात्पर्य यह है कि त्रस प्राणी दिशाओं और दिशासु च गतिं कुर्वन्ति तथा सर्वाभ्यो दिशाभ्योऽनु- विदिशाओं में गति करते हैं तथा सब दिशाओं और विदिशाओं में भयदिशाभ्यश्च भयभीता भवन्ति । चर्णावस्मिन् प्रसंगे भीत होते हैं। चूर्णिकार ने इस प्रसंग में रेशम के कीड़े का दृष्टांत कोशीकारकीट निदर्शनमुपढौकितमस्ति । यथा कोशी- प्रस्तुत किया है। जैसे-रेशम का कीड़ा चारों ओर से भयभीत होकर कारः सर्वतो भीत एव कोशनिर्माणं करोति। ही कोश का निर्माण करता है। १२४. तत्थ-तत्थ पुडो पास, आउरा परितावेति । सं०-तत्र तत्र पृथक् पश्य, आतुराः परितापयन्ति । तू देख, आतुर मनुष्य स्थान-स्थान पर त्रसकायिक प्राणियों को परिताप दे रहे हैं। १२५. संति पाणा पुढो सिया। सं०-सन्ति प्राणा: पृथक् श्रिताः । प्रसकायिक प्राणी पृथक् पृथक् शरीरों में आश्रित हैं। १२६. लज्जमाणा पुढो पास। सं०-लज्जमानान् पृथक् पश्य । तू देख, प्रत्येक संयमी साधक हिंसा से विरत हो संयम का जीवन जी रहा है। १. अंगसुत्ताणि २, भगवई २।१५ : गोयमा ! जम्हा आणमइ वा, पाणमइ वा, उस्ससइ वा, नीससइ वा तम्हा पाणे त्ति वत्तव्यं सिया। जम्हा भूते भवति भविस्सति य तम्हा भूए त्ति वत्तब्वं सिया। जम्हा जीवे जीवति, जीवत्तं आउयं च कम्म उवजीवति तम्हा जीवे त्ति वत्तव्वं सिया जम्हा सत्ते सुमासुभेहिं कम्मेहि तम्हा सत्ते ति बत्तव्वं सिया। २. दसवेआलियं, ४।सूत्र ९ : जेसि केसिंचि पाणाणं अभिक्कंतं पडिक्कतं, संकुचियं पसारियं रुयं भंतं तसियं पलाइयं आगइगइविन्नाया। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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