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अ०] १. शस्त्रपरिता उ० ३.४. सूत्र ६०-६६
६३. एस्थ सत्यं असमारंभमाणरस इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति ।
सं० ० - अत्र शस्त्रं असमारभमाणस्य इत्येते आरंभा: परिज्ञाता भवन्ति ।
जो जलकायिक जीव पर शस्त्र का समारम्भ नहीं करता, वह इन आरंभों से मुक्त हो जाता है ।
६४. तं परिण्णाय मेहावी व सयं उदय सत्यं समारंभेज्जा, शेवरनेहि उदय-सत्यं समारंभावेज्जा, उदय सत्यं समामतेवि अपने ण समणुजाज्जा
सं०
परिवार मेघावी नैव स्वयं उदकवस्त्रं समारभेत व अन्यैः उदशरथं समारम्भवेत् उदकशस्त्रं समारभमाणान् अन्यान् न समनुजानीत |
यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं जलशस्त्र का समारम्भ न करे, दूसरों से उसका समारम्भ न करवाए तथा उसका समारम्भ करने वाले दूसरों का अनुमोदन न करे ।
६५. जस्सेते उदय-सर-समारंभा पण्णिाया भवंति से हु मुणी परिण्णात कम्मे । त्ति बेमि
सं० - यस्यैते उदकशस्त्रसमारंभाः परिज्ञाताः भवन्ति, स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा । - इति ब्रवीमि ।
जिसके जलर सम्बन्धी कर्म समारम्भ परिवात होते हैं, वही मुनि परिवात-कर्मा ( कर्म त्यागी) होता है। ऐसा मैं कहता हूँ।
पूर्ववत् देखें -सूत्र ३१-३४ ।
भाष्यम् ६२-६५ – एतानि सूत्राणि पूर्ववत् ( ३१-३४) इष्टव्यानि ।
चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक
६६. से बेमिव सयं लोग अग्भाइववेज्जा अभाइक्खइ । जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, से लोगं अब्भाइक्खइ ।
तद् ब्रवीमि नैव स्वयं लोकं अभ्याख्यायात्, नैव आत्मानं अभ्याख्यायात् । यः लोकं अभ्याख्याति, स आत्मानं अभ्याख्याति । यः आत्मानं अभ्याख्याति, स लोकं अभ्याख्याति ।
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व अलाणं अम्भाइववेज्जा । जे लोगं अम्माइक्खड, से अतार्ण
मैं कहता हूं वह स्वयं अग्निकायिक लोक के अस्तित्व को अस्वीकार न करे और न अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करे । जो अग्निकायिक लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है । जो अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह अग्निकायिक लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है ।
भाष्यम् ६६ - अत्र लोकशब्देनाग्नि कायलोको' ग्रहणीयः । यद्यप्यग्निकायिकजीवाः सूक्ष्मत्वान्नैव दृष्टा भवन्ति तथापि तत्प्रत्यवार्थ निर्बुक्तिकारण केचन हेतव
उपन्यस्ताः
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जह देहपरिणामो रत्ति खज्जोयगस्स सा उबमा । जरियस्स य जह उम्हा, तओवमा तेउजीवाणं ॥ यथा खद्योतस्व देहपरिणामो रात्रौ प्रकाशरूपेण द्योतते एवमग्नावपि जीवप्रयोगविशेषाविर्भाविता प्रकाशशक्तिरनुमीयते । यथा ज्वरोष्मा जीवं नातिवर्तते तथा ऊष्मवत्त्वेनाग्निरपि जीव इत्यनुमीयते ।
१. आचारांग चूर्ण, पृष्ठ २९ : लोगो अग्गिलोगो ।
यहां लोक शब्द से अग्निकाय लोक का ग्रहण करना चाहिए । यद्यपि अग्निकायिक जीव सूक्ष्म होने के कारण दिखते नहीं है, फिर भी उनकी प्रतीति के लिए निर्मुक्तिकार ने कुछ हेतु प्रस्तुत किए हैं
जैसे खद्योत (जुगनू) के शरीर की तेजस परिणति रात्रि में प्रकाशमय होकर प्रदीप्त होती है, उसी प्रकार अग्नि में भी जीव के प्रयोगविशेषसे आविर्भूत प्रकाश-शक्ति का अनुमान किया जाता है। जैसे ज्वर की ऊष्मा जीव में ही पायी जाती है, उसी प्रकार ऊष्मावान होने के कारण अग्नि भी जीव है, ऐसा अनुमान किया जाता है ।
२. आचारांग निर्मुक्ति, गाया ११९ ।
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