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________________ अ० ४. सम्यक्त्व, उ० ३-४. सूत्र ३५-४० भाष्यम् ३८ ये क्रोधात्मकेषु पापेषु कर्मसु निर्वृताः - शीतीभूताः वर्तन्ते ते अनिदानाः भवन्ति इति भगवता व्याहृतम् । निदानम् — बन्धनम् । ये उपशान्तक्रोधाः वर्तन्ते तेषां क्रोधात्मकं अथवा क्रोधपरिणामोत्पन्नं बन्धनं नास्ति । अत एव ते अनिदानाः भवन्ति । ३९ धा नानाविधानां कष्टानां सम्प्राप्तिर्भवति तस्मात् त्रिविद्यः पुरुषः न प्रति संज्वलेतुन रुष्येत् न च क्रोधं प्रति क्रोधं कुर्यात् । ३६. तम्हा तिविज्जो जो पडिसंजलिस। ति बेमि विविद्य तो प्रतिसंयसेत् इति ब्रवीमि । सं०---तस्मात् इसलिए त्रिवि पुरुष प्रतिसंज्वलन न करे— क्रोध का निमित्त मिलने पर भी क्रोध न करे । ऐसा मैं कहता हूं । भाग्यम् ४० कश्चिद् भव्यो मनुष्यः धर्मचवणपूर्वकं पूर्वसंयोगं हित्वा इन्द्रियमनसोरुपशमं प्राप्य प्रव्रजितो भवति । प्रब्रज्यानन्तरं स कि कुर्यादिति जिज्ञासायां सन्ति तिम्रो भूमिकाः प्रतिपादिता: प्रथमा आपीडन भूमिका, द्वितीया प्रपीडनभूमिका, तृतीया निष्पीडन भूमिका । । पीडनं शरीरस्य कर्मणश्च । तस्य द्वावुपायौ - श्रुतं तपश्च । ४०. आवीलए पवीलए निप्पीलए जहित्ता पुव्वसंजोगं, हिच्चा उवसमं । सं० - आपीडयेत् प्रपीडयेत् निष्पीडयेत् हित्वा पूर्वसंयोगं हित्वा उपशमं । मुनि पहले पूर्व सम्बन्धों को त्याग कर, इन्द्रिय और मन को शांत कर आपीडन, फिर प्रपीडन और फिर निष्पीडन करे । प्रथमभूमिकायां श्रुताध्ययनश्रमेण तोपयोगितयः समाचरणेन च आपीडनं भवति ।" द्वितीयभूमिकायां अनियतवासकाले, चउत्थो उद्देसो चौथा उद्देशक १. द्रष्टव्यम् ३।२८ सूत्रस्य पादटिप्पणम् । चूणिव्याख्या - इति कारणा इति आमंतण एवं जाणंतो सद्दहंतो य विज्जं भवति हे विद्वन् ! | तस्मादतिविद्वान् विदितागमसद्भावः । Jain Education International यात्रायां, २२५ भगवान् ने कहा है जो पुरुष क्रोधात्मक पापकर्मों से नितांत हो गए हैं, वे अनिदान बन्धन मुक्त होते हैं। निदान का अर्थ है - बन्धन । (प्रा० चू० पृष्ठ १४८ ) जिनका क्रोध उपशांत होता है उनके क्रोधात्मक अथवा क्रोध के परिणाम से उत्पन्न बंधन नहीं होता। इसीलिए वे अनिदान होते हैं । (आ० ० पत्र १७४) क्रोध से नाना प्रकार के कष्टों की संप्राप्ति होती है, इसलिए त्रिविध] पुरुष स्वयं को कांध से प्रभ्वलित न करे तथा क्रोध करने वाले के प्रति भी क्रोध न करे । कोई भव्य पुरुष धर्म को सुनकर, पूर्व संयोगों का परिहार कर इन्द्रिय और मन का उपशमन कर प्रब्रजित होता है। प्रया ग्रहण करने के पश्चात् वह क्या करे इस जिज्ञासा के समाधान में तीन भूमिकाओं का प्रतिपादन किया गया है पहली है-आपीडन भूमिका, दूसरी है-प्रपीडन भूमिका तथा तीसरी हैप्पी भूमिका शरीर और कर्म का पीडन किया जाता है। उसके दो उपाय हैं-श्रुत और तप । प्रथम भूमिका में श्रुत के अध्ययन के श्रम से तथा श्रुतोपयोगी तप के आचरण से आपीडन होता है । दूसरी भूमिका में अनियत निवास काल के कारण तथा यात्रा गीतायामपि (९.२० ) त्रैविद्यपदस्य प्रयोगो दृश्यते । गतिवृद्धः । २. ३. आधारंग भूमि, पृष्ठ १४८, १४९ आचारांग नियुक्ति गाथा २६७ । बृहत्कल्पभाष्य गाथा १४४६, ११३२१२५३ । निशीथ भाष्य गाथा ३८१३ चूणि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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