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________________ २२४ आचारांगभाष्यम् ३५. दुक्खं च जाण अदुवागमेस्सं । सं०-दुःखं च जानीहि अथवा आगमिष्यत् । कोध के द्वारा वर्तमान अथवा भविष्य में होने वाले दुःखों को जान । भाष्यम् ३५– क्रोधेन संज्वलतः मानसं दुःखमुत्पद्यते, क्रोध से जलते हुए व्यक्ति के मानसिक दुःख उत्पन्न होता है, तद् दुःखं जानीहि । अथवा क्रोधेन क्रोधस्य संस्कारो उस दुःख को तू जान । अथवा क्रोध से क्रोध का संस्कार निर्मित होता निर्मितः पूष्टश्च भवति । स च भविष्यति दुःखसृष्टि है, पुष्ट होता है। वह भविष्य में दुःख की सृष्टि करता है तथा क्रोध करोति तथा क्रोधजनितं कर्म विपाकापादितं चागामि- से अजित कर्म विपाक अवस्था में आकर भविष्य का दुःख बन जाता दुःखं जानीहि, एतद् ज्ञानमपि क्रोधविवेकस्य आलम्बनं है, यह जान । यह अवबोध भी क्रोध-विवेक का आलम्बन-सूत्र बनता भवति । ३६. पुढो फासाइं च फासे । सं०-पृथक् स्पर्शान् च स्पृशति । क्रोधी मनुष्य नाना प्रकार के दुःखों और रोगों को भोगता है। भाष्यम् ३६-क्रोधी मनुष्यः नानाप्रकारान् स्पर्शान् क्रोधी मनुष्य नाना प्रकार के शीत-उष्ण आदि स्पर्शो-कष्टों शीतोष्णादिस्पर्शान् रोगस्पर्शान् वा स्पृशति-वेदय- तथा रोगों के कष्टों को भोगता है। तीत्यर्थः। शीतोष्णस्पर्शा:-क्रोधाविष्टः मनुष्यः शीतविपि शीतोष्णस्पर्श-जब मनुष्य क्रोध के गहरे आवेश से ग्रस्त वासांसि परित्यज्य प्रायो निर्वसनशरीरः तिष्ठति । होता है तब वह शीत ऋतु में भी सारे वस्त्र छोड़कर प्रायः निर्वस्त्र हिमकणान् आश्लिष्यति तुषिरवाते वाति अर्धरजन्यां होकर बैठ जाता है । जब ठिठुराने वाली बर्फीली हवाएं चलती हैं तब मुक्ताकाशेऽपि तिष्ठति । भी वह आधी रात में खुले आकाश में आकर बैठ जाता है। सति क्रोधावेशे मनुष्यः तपति मध्याह्नवर्तिनि जब क्रोध का आवेश तीव्र होता है तब मनुष्य मध्याह्न की दिनमणी, प्रतपति शिलापट्टेष्वपि प्रज्वलिते अग्नावपि चिलचिलाती धूप में, अत्यन्त गर्म शिलापट्ट पर तथा प्रज्वलित अग्नि स्वं निपातयति। में स्वयं को जला डालता है । रोगस्पर्शाः-क्रोधावेशावस्थायां हृद्दौर्बल्यं पित्त- रोगस्पर्श-क्रोध के आवेश में हृदय की दुर्बलता, पित्त का प्रकोपादयः रोगाः प्रादुर्भवन्ति । वृत्तिकृता पारलौकिका- प्रकोप आदि रोग उत्पन्न होते हैं। वृत्तिकार ने इस प्रसंग में पारनामपि दुःखानां उल्लेखः कृतोऽस्ति ।' लौकिक दुःखों का भी उल्लेख किया है। ३७. लोयं च पास विष्फंदमाणं । सं०-लोकं च पश्य विस्पन्दमानम् । तू देख ! यह लोक क्रोध से चारों ओर प्रकम्पित हो रहा है। भाष्यम् ३७-अयं मनुष्यलोकः क्रोधेन विस्पन्द- यह मनुष्य-लोक क्रोध से प्रकंपित हो रहा है । क्रोध द्वारा मानोस्ति । यत् क्रोधजनितं शारीरं मानसं वा दुःखमस्ति उत्पन्न जो शारीरिक और मानसिक दुःख है, उसके प्रतिकार के लिए तस्य प्रतिकाराय इतस्तत: परिभ्रमन्नस्ति । एतत् त्वं मनुष्य इधर-उधर चक्कर लगा रहा है । इसे तू विवेव-चक्ष से देख । विवेकचक्षुषा पश्य । ३८. जे णिचुडा पाहि कम्मेहिं, अणिदाणा ते वियाहिया। सं०-ये निर्वृताः पापेषु कर्मसु, अनिदानाः ते व्याहृताः । जो पुरुष क्रोधात्मक पाप-कर्मों को शांत कर देते हैं, वे अनिदान कहलाते हैं। १ आचारांग वृत्ति, पत्र १७४ : पृथक् सप्तनरकपृथिवीसम्भवशीतोष्णवेदनाकुम्भीपाकाबियातनास्थानेषु 'स्पर्शान्' दुःखानि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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