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________________ ४०८ आचारांगभाष्यम् ३. परीषहः। ३. परीषह। ४. आतंके अचिकित्सा अवमोदयं च । ४. रोग होने पर अचिकित्सा तथा अवमौदर्य । अस्मिन्नध्ययने भगवतः साधनायाः वास्तविक इस अध्ययन में भगवान् महावीर की साधना का यथार्थ प्रतिपादनमस्ति । एकशाटकावस्थायां दीक्षा, ततः प्रतिपादन हुआ है। एक शाटक की अवस्था में दीक्षा, फिर अचेलत्व अचेलत्वस्य स्वीकरणं, एष वस्त्रविषयकः प्रकल्पः।' का स्वीकरण-यह उनकी वस्त्र-विषयक मर्यादा है। भगवान् का भगवतः समयः ध्यानसाधनायां सुनियोजित आसीत्। समय ध्यान की साधना में सुनियोजित था। उसमें उन्होंने अनिमेषतत्र अनिमेषप्रेक्षाया विविक्तस्थानस्य च प्रयोगः प्रेक्षा तथा एकान्त स्थान का प्रयोग किया। अप्रमाद और समाधिकृतोऽस्ति । अप्रमादः समाधिश्च तस्य मुख्यं ध्यानांग- ये दोनों उनके ध्यान के मुख्य अंग थे। यहां ध्यान के आसनों का मासीत् । ध्यानासनस्य संकेतः ध्यानविनिर्देशोऽपि संकेत तथा ध्यान की विधि का निर्देश भी उपलब्ध होता है। यदि लभ्यते । यदि ध्यानविषयकानि पद्यानि एकालापकरूपेण ध्यान विषयक सारे पद्य एक आलापक के रूप में संगृहीत हों तो समुच्चितानि भवेयुस्तदा सहजं ध्यानस्य विधिः सहजरूप से ध्यान की पूरी विधि सामने आ जाती हैसमवतरति अदु पोरिसि तिरिय भित्ति, चक्खुमासज्ज अंतसो झाइ। 'भगवान् प्रहर-प्रहर तक आंखों को अपलक रख तिरछी भींत अह चक्खु-भीया सहिया, तं 'हता हंता' बहवे कंदिसु ॥' पर मन को केन्द्रित कर ध्यान करते थे। लंबे समय तक अपलक रही आंखों की पुतलियां ऊपर की ओर चली जातीं। उन्हें देखकर भयभीत बनी हुई बच्चों की टोली 'हंत ! हंत !' कहकर चिल्लाती-दूसरे बच्चों को बुला लेती।' सयहिं वितिमिस्सेहि, इत्थीओ तत्थ से परिण्णाय। 'भगवान् जन-संकुल स्थानों में नहीं ठहरते थे। कभी-कभी सागारियं ण सेवे, इति से सयं पवेसिया झाति ॥' ऐसा होता कि वे एकान्त स्थान देखकर ठहरते, पर एकान्त की खोज में कुछ स्त्रियां वहां आ जाती। भगवान् की प्रज्ञा जागृत थी। इसलिए उन स्त्रियों के द्वारा भोग की प्रार्थना किए जाने पर भी भगवान् भोग का सेवन नहीं करते थे । वे अपनी आत्मा की गहराइयों में पैठकर ध्यान में लीन रहते थे।' जे के इमे अगारत्था, मोसीभावं पहाय से झाति। 'गृहस्थों से संकुल स्थान प्राप्त होने पर भी भगवान् अपने पुट्ठो वि णाभिभासिसु, गच्छति गाइवत्तई अंजू ॥' मन को किसी में न लगाते हुए ध्यान करते थे। वे पूछने पर भी नहीं बोलते । उन्हें कोई बाध्य करता तो वे वहां से मौनपूर्वक दूसरे स्थान में चले जाते । वे ध्यान का अतिक्रमण नहीं करते और हर स्थिति में मध्यस्थ रहते।' एतेहि मुणी सयहि, समणे आसी पतेरस वासे । 'भगवान् साधना-काल के साढे बारह वर्षों में इन वास-स्थानों राई दिवं पि जयमाणे, अप्पमत्ते समाहिए झाति ॥' में प्रसन्नमना रहते थे। वे रात और दिन मन, वाणी और शरीर को स्थिर और एकाग्र तथा इन्द्रियों को शांत कर समाहित अवस्था में ध्यान करते थे। अवि झाति से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए झाणं। भगवान् ऊकडू आदि आसनों में स्थित और स्थिर होकर उड्ढमहे तिरियं च, पेहमाणे समाहिमपरिणे ॥' ध्यान करते थे। वे ऊंचे, नीचे और तिरछे लोक में होने वाले पदार्थों को ध्येय बनाते थे। उनकी दृष्टि आत्म-समाधि पर टिकी हुई थी। वे संकल्प से मुक्त थे।' १. आयारो, ९।१।१-४ । ६. वही, ९।१६। २. वही, ९।१।५-७ । ७. वही, ९१७ । ३. वही, ९।२।४ । ८. वही, ९।२।४। ४. वही, ९।४।१४,१५। ९. वही, ९.४१४॥ ५. वही, ९।१।५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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