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________________ अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ४. सूत्र ६७-७० निर्देशो नास्ति, किन्तु दृष्टमितिपदेन ज्ञानदर्शनयोः है कि क्या 'अभिभूत' कर, किन्तु 'दृष्ट' शब्द से ज्ञान-दर्शन के आवरण आवरणमभिभूयेति स्वतः प्राप्तम् । को अभिभूत कर, यह स्वतः प्राप्त हो जाता है। वीरा:-आवरणानि अभिभवितुं पराक्रमशालिनः। वीर का अर्थ है--आवरणों को अभिभूत करने में पराक्रम कर वाले। संयता:-इन्द्रियमनसोविषयेभ्यः उपरताः। संयत का अर्थ है-इन्द्रिय और मन के विषयों से उपरत । सदा यता:-क्रोधादीनां निग्रहपरत्वेन संयम प्रति सदा यत का अर्थ है-क्रोध आदि के निग्रह में तत्पर होकर तन्मयतां प्राप्ताः। संयम के प्रति तन्मयता रखने वाले । सदा अप्रमत्ता:-चैतन्यं प्रति सततं जागरूकाः। सदा अप्रमत का अर्थ है-चैतन्य के प्रति सतत जागरूक । आवरणाभिभवस्यैतानि चत्वारि साधनानि विद्यन्ते आवरण-विलय के ये चार साधन हैं--पराक्रम, संयम, यम -पराक्रमः, संयमः, यमः अप्रमादश्च ।। और अप्रमाद । ये संयता यता अप्रमत्ताश्च भवन्ति, त एव वीराः। वे ही वीर होते हैं जो संयत, यत और अप्रमत्त होते हैं। ऐसे तादशैर्वीरैरेवावरणाभिभवः कर्तुं शक्यः । वीरों के द्वारा ही आवरण का अभिभव-विलय शक्य है। ६६. जे पमत्ते गुणट्रिए, से ह दंडे पच्चति । सं०-यः प्रमत्तः गुणार्थी स खलु दण्ड. प्रोच्यते । जो प्रमत्त है, गुणार्थी है, वह दण्ड कहलाता है। भाष्यम् ६९-सति प्रमादे आवरणाभिभवोऽशक्य प्रमाद होने पर आवरण का अभिभव अशक्य होता है, इतिसमर्थयितुं सूत्रकारः प्रवक्ति-यः प्रमत्तः गुणार्थी-- इसका समर्थन करते हुए सूत्रकार कहते हैं - जो प्रमत्त और गुणार्थी विषयार्थी वर्तते, स खलु 'दण्डः' प्रोच्यते । स खलु अर्थात् विषयार्थी होता है, वह 'दण्ड' कहलाता है। वह तेजस्कायिक तेजस्कायिकजीवान दण्डयन वस्तुत आत्मानं दण्डयति, जीवों को दण्डित करता हुआ वस्तुत: अपने आपको दण्डित करता है। तेन स 'दण्डः' इत्युक्तः। सूत्रकृताङ्गे' एततुल्यप्रकरणे इसलिए उसे 'दण्ड' कहा गया है। सूत्रकृताङ्ग में इसके तुल्य प्रकरण में 'आयदंड' एषः प्रयोगोऽपि लभ्यते। 'आत्मदंड' ऐसा प्रयोग भी मिलता है। एतेन फलितं भवति यत् प्रमत्तो विषयार्थी च इससे फलित होता है कि प्रमत्त और विषयार्थी मनुष्य हिंसा में हिंसायां प्रवर्तते। प्रमादो विषयाथिता च हिंसाया: प्रवृत्त होता है। हिंसा के दो कारण हैं- प्रमाद और विषयार्थिता। कारणद्वयम् । एताभ्यामेव मनोवाकायदण्डा भवन्ति। इन दोनों से ही मन, वचन और शरीर के दण्ड निष्पन्न होते हैं। ७०. तं परिणाय मेहावी इयाणि णो जमहं पुत्वमकासी पमाएणं । सं० ---तं परिज्ञाय मेधावी इदानीं नो यमहं पूर्वमकार्ष प्रमादेन । यह जानकर मेधावी पुरुष संकल्प करे--'वह अब नहीं करूंगा, जो मैंने प्रमादवश पहले किया था।' भाष्यम् ७०-प्रमादो हिंसायाः कारणमिति परिज्ञाय प्रमाद हिंसा का कारण है, यह जानकर मेधावी मुनि दृढ मेधावी मनिः सुदृढसंकल्पपूर्वकमात्मानमनुशास्ति-- संकल्प करते हुए अपने आप पर अनुशासन करता है—'अब मैं संयत 'इदानीमहं संयतो जातः, तेन असंयतावस्थायां प्रमादेन हो गया हूं, इसलिए असंयत अवस्था में प्रमाद से मैंने जो अग्निकायिक यमग्निकायिकजीवानां समारम्भमकार्ष तं इदानीम- जीवों का समारम्भ किया था उसे अब अप्रमाद की अवस्था में नहीं प्रमादावस्थायां न करिष्यामि ।' करूंगा।' मेधावी-यो ज्ञपरिज्ञया वस्तुतत्त्वं ज्ञात्वा मेधावी-- जो ज्ञपरिज्ञा से वस्तुतत्व को जानकर और प्रत्याप्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याख्याय च मर्यादायामवस्थितो ख्यानपरिज्ञा से परित्याग कर मर्यादा में अवस्थित होता है, वह मेधावी भवति, स मेधावी। कहलाता है। १. अंगसुत्ताणि १, सूयगडो १७२,८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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