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________________ १६४ आचारांगभाष्यम् क्षेत्रतः--षट्सु दिक्षु। क्षेत्रत:---छहों दिशाओं से उसे भय होता है। कालतः-अनुसमयम् । कालतः--प्रति क्षण उसे भय सताता है। भावतः-सर्वासु अवस्थासु । भावत: सभी अवस्थाओं में वह भयभीत रहता है। यः रागद्वेषाभ्यां क्रोधमानमायालोभैर्वा अभि- प्रमत्त वह होता है जिसके आत्म-परिणाम राग-द्वेष अथवा भूतात्मपरिणामः स प्रमत्तः। तैरनभिभूतात्मपरि- क्रोध, मान, माया और लोभ से अभिभूत होते हैं। जिसके आत्मणामश्चाप्रमत्तः । रागाभिभूतः पुरुषः प्रियवियोगाशंकया परिणाम इनसे अभिभूत नहीं होते वह अप्रमत्त होता है। राग से बिभेति, द्वेषाभिभूतश्च अप्रियसंयोगाशंकया। एवं अभिभूत व्यक्ति अपने प्रिय के वियोग की आशंका से भयभीत हो जाता क्रोधादीनपि अनुगच्छति भयम् । प्रियाप्रिययोः समं है और द्वेष से अभिभूत व्यक्ति अप्रिय के संयोग की आशंका से तिष्ठतः अप्रमत्तस्य कुतोऽपि भयं न भवति । तात्पर्यमस्य भयभीत हो जाता है। इस प्रकार भय क्रोध आदि का भी अनुगमन यस्मिन कषायः सक्रियस्तत्र भयं, यस्मिन् स निष्क्रियः करता है। अप्रमत्त व्यक्ति प्रिय और अप्रिय के प्रति सम रहता है, तत्राभयं भवति । इसलिए उसे कहीं से भी भय नहीं होता। इसका तात्पर्य यह है कि जिसमें कषाय सक्रिय है, वहां भय है और जिसमें वह निष्क्रिय है, वहां अभय है। ७६. जे एगं नामे, से बहुं नामे, जे बहुं नामे, से एगं नामे । सं०-यः एक नामयति, स बहून् नामयति । यः बहून् नामयति, स एकं नामयति । जो एक को झुकाता है, वह बहुतों को झुकाता है । जो बहुतों को झुकाता है, वह एक को झुकाता है । भाष्यम् ७६–कषायाधिकारो वर्तते। कषायस्य कषाय का अधिकार है। कषाय का वमन दो प्रकार का होता वमनं द्विविधं भवति-उपशमनवमनं क्षपणवमनं च । है-उपशमन वमन और क्षपण वमन । अध्यात्म-जगत् में दमन अध्यात्मजगति दमनं नास्ति सम्मतं, किन्तु विरेचनमस्ति सम्मत नहीं है, किन्तु विरेचन सम्मत है। प्रस्तुत सूत्र में उपशमन का सङ्गतम। उपशमनस्य क्रमोऽत्र दशितः-य एकं नाम- क्रम प्रतिपादित है जो पुरुष एक को नमाता है, वह बहुतों को नमाता यति स बहून् नामयति । नामयति इति उपशमयति ।' है। नमाता है का अर्थ है-उपशमन करता है। मोहनीय कर्म की मोहनीयकर्मणः अष्टाविंशतिः प्रकृतयः सन्ति । य एक अट्ठाईस प्रकृतियां हैं। जो एक क्रोध की प्रकृति का उपशमन करता क्रोधं उपशान्तं करोति स बह्वीरपि शेषाः सप्तविंशति है, वह बहुत सारी शेष सत्ताईस प्रकृतियों का भी उपशमन कर देता प्रकृती: उपशान्ताः करोति । प्रतिपक्षभावनादिभिः है। प्रतिपक्षी भावनाओं, अनुप्रेक्षाओं तथा आसन आदि के प्रयोगों अनप्रेक्षादिभिरासनादिप्रयोगैश्च क्रोधादीनामुपशमो से क्रोध आदि प्रकृतियों का उपशमन होता है । क्षय एक बार होता जायते । क्षयः सकृद् भवति उपशमश्च असकृद् । है, उपशमन बार-बार । यो बहन कषायान उपशमयति स क्रोधादिकमन्य- जो अनेक कषायों (कषाय की प्रकृतियों) का उपशमन करता तरमपि उपशमयति। है, वह क्रोध आदि किसी एक का भी उपशमन करता है। ७७. दुक्खं लोयस्स जाणित्ता। सं०-दुःखं लोकस्य ज्ञात्वा । पुरुष लोक के दुःख को जाम कर (उसके हेतुभूत कषाय का परित्याग करे)। भाष्यम ७७-इदानी क्षपणवमनं प्रक्रान्तम् । यो अब प्रसंग है-क्षपणवमन का। जो पुरुष दुःख और दुःख के दुःखं दुःखहेतुं च उपलभ्य ज्ञानपूर्विकां क्रियामाचरति हेतु को जानकर ज्ञानपूर्वक क्रिया करता है, उसके कषाय की प्रकृतियां तस्य कषायप्रकृतयः क्षीणा भवन्ति । लोकस्य दुःखमस्ति क्षीण होती हैं। लोक के दुःख है, यह जान कर उस दुःख के हेतु की इति ज्ञात्वा तस्य हेतोरन्वेषणं करणीयम् । व्यवहारनय- खोज करनी चाहिए । व्यावहारिक दृष्टिकोण के अनुसार प्रतिकूल माश्रित्य दुःखं प्रतिकूलसंवेदनं, निश्चयनयमाश्रित्य तस्य संवेदन दुःख है और नैश्चयिक दृष्टिकोण के अनुसार दुःख का हेतुभूत हेतुभूतं कर्म दुःखम्। कर्म दुःख है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १२६ : उबसमणंति वा णामणं वा एगट्ठा। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002552
Book TitleAcharangabhasyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages590
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Research, & agam_acharang
File Size14 MB
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